Thursday 31 December 2015

मुखौटों का शहर


तुम इतना तेज मत चलो 
इतने आगे निकल तो गए हो 
पर कम से कम पल दो पल तो रुको 
रुख कर चलने के बीच 
इतना वक्त तो हो मेरे मीत
इंतज़ार जो तुमने किया हो मेरे लिए 
उसका मुझे अहसास तो हो 
मेरे प्यार में इतना हो दम 
मेरे इंतज़ार में थम जाए तुम्हारे कदम 
तुम्हारी आगे बढ़ने की चाह 
बदल देगी हमारी राह 
बहुत ऊँचाई तक तुम पहुंच गए हो
अगर तुम मुझे हाथ बढ़ा कर थामते
मैं भी उन उचांइयो को महसूस करती 
अब खत्म सी हो रही है कदमों की समानता 
हाथ की ठंडक से पता चल रही है 
रिश्तों की गर्माहट 
सुनहरे सपनों में उलझ कर बहुत दूर निकल गए 
बीच में वक्त के थफेड़ों ने
मिटादी पुरानी यादों की कहानी
आख़रि पड़ाओं पर 
हमारी मुलाकात वास्तविक नहीं थी 
बातों और मुलाक़ातों से ही समझा 
की आगे यात्रा
मिटा देगी मेरा अस्तित्व, क्योंकि?
अब तुम मुखौटों के शहर में
जो आ गए हो 
जहां कदम कभी थकते नहीं 
एक दूसरे का पीछे छोड़ने की चाह में 
सांस लेने को भी लोग रुकते नहीं

Thursday 17 December 2015

माँ का इंतज़ार


माँ मुझे आज भी तेरा इंतज़ार है 
पता नही क्यों ?
तू आती है मिल्ती है और 
प्यार भी बहुत करती है 
तुझे मेरी फिक्र भी है 
पर मुझे तेरा इतंज़ार है 
कल कोइ मुझसे पूछ रहा था 
अरे पागल कैसा तेरा ये इतंज़ार है
मैं तुम्हें नहीं बता सकती
बात बरसों पुरानी है 
वो मेरा नन्हा सा मन 
सालों बाद भी; मेरे अंदर 
छुप कर बैठा है 
और सवाल करता है 
अपने आप से बार-बार  
वो सवाल आँखों में 
छुप गया है आँसू बना
होठों पर आते-आते रुक गया है
कुछ मन में फाँस बन चुभ गया है 
तूने मुझे अपने से अलग कर कहा था 
मैं यहाँ खुश रहूंगी 
और तू मुझसे मिलने 
आया करेगी कभी-कभी 
वो कभी-कभी शब्द 
मेरे मन से कभी नहीं निकला 
वो तेरा कहना आया करूँगी 
मेरे लिए इतंज़ार शब्द बन गया 
और वो बचपन का इतंज़ार 
मेरे अदंर डर बना कर ऐसे छुप गया कि
वो कभी ख़ुली हवा में निकला ही नहीं 
और वो इंतज़ार शब्द 
अपाहिज हो गया 
अब वो चल नहीं सकता है 
इसलिए मेरे अंदर से निकल नहीं पाता है ।

चित्र गूगल के माध्यम से 

Thursday 3 December 2015

जब बात सबूतों की चली


तुमने बड़ी खामोशी से लौटाए कदम
पर मेरे दिल पर दस्तक हो ही गई मेरे हमदम 
आते हुए कदमों में एक जोश था
लौटता हुआ हर कदम ख़ामोश था 
वो शिकायतों की गिरह ख़ोल तो देता 
जो तूने अपने मन में बांधी थी
दो लफ़जों में बोल तो देता
नासूर जो तूने बिना वजह पाले
उसकी दवा मुझसे पूछ तो लेता, ओ मतवाले 
चाँद को गवाह बना कर किए थे जो वादे
क्यों भोर होने तक कमज़ोर पड़ गए तेरे इरादे 
तेरी नज़रों का वो धोख़ा था 
वो धुँध में जो साया था 
वो मेरा वजूद था 
वर्षों से मुझमें समाया था 
वो मेरा आत्मसम्मान था 
जो तुझ से टकराया था 
तुम बात सबूतों की मत करो 
कभी अपने गिरहेवांह में भी झाँका करो

Monday 23 November 2015

उम्मीद की इबारत


सारी जिंदगी ढूँढती रही
न मंजिल मिली न किनारा 
न शब्दों का अर्थ  
अनवरत चलते कदम 
कभी थकते हैं कभी रुकते हैं 
बस झुकना,
वो कमबख़्त वक़्त भी
नहीं सिखा पाया 
ये उम्मीद शब्द 
मैने सुना जरूर है 
मेरी कलम उसे
बहुत अच्छे से लिख लेती है
पर मेरा मस्तिष्क उसका अर्थ
ढूँढ पाने में बहुत असमर्थ है
क्योंकि उसका अर्थ 
जो तुम बता गए थे
उस तरह का मिलता ही नहीं 
न जाने कौन लिखता है
तकदीर की इबारत
क्यों वो सामने आता ही नहीं 
वर्ना जिंदगी में 
इस पार या उस पार 
कहीं तो अपना अर्थ लिए 
मुझे उम्मीद मिलती 

Sunday 4 October 2015

पत्थर बोलते नहीं


जब तुम गए मैने देख़ा ही नहीं 
क्या -क्या अपने साथ ले गए
अब मेरा बहुत सा सामान नहीं मिला रहा 
ज़्यादा कुछ नहीं बस दो चार चीज़े हैं 
मैने तुम्हें हर उस जगह पर तलाशा जहाँ तुम हो सकते थे
एक मेरा विश्वास; एक मेरी परछाई
मेरी अंतर आत्मा; मेरे शब्द 
पर तुम कहीं नहीं मिले 
मेरा सामान तो लौटा जाते 
इस बिख़रि हुइ जिंदगी को समेटने के लिए
जो तुम ले गए वो विश्वास चाहिए 
इस जीवन के कोरे कागज को 
लिख़ने के लिए वहीं शब्द चाहिए 
मेरी अंतर आत्मा बहुत ख़ामोश है
उसका मौन तोड़ने के लिए वार्तालाप का प्रहार चाहिए 
मुझे तो नहीं पर हाँ मेरी परछाइँ को आदत थी
तुम्हारे साए से रूठने और मनाने की  
उस परछाइँ को हो सकता है इतंज़ार हो 
कह दो कि तुम मेरा सामान तो लौटाने आओगे एक बार 
इंतज़ार करती आँख़ें पथरा जरूर गई हैं
पर अब ये तुम्हें नहीं रोकेंगी रोड़ा बन 
क्योंकि पत्थर बोलते नहीं

Wednesday 30 September 2015

परिंदे


परिंदे नहीं होते स्वार्थी
ख़ुल कर जीते हैं
आख़िरि सांस तक 
निस्वार्थ भाव से सिख़ाते हैं
अपने बच्चो को उड़ना
ख़ुल जाते हैं जब बच्चो के पंख़ 
नहीं उम्मीद करते की
ये मुड़कर लौटेगा भी की नहीं 
आने वाला कल 
घोंसला ख़ाली होगा की भरा 
कैसे रह पाते होंगें 
उनके अपने जब दूर चले जाते होंगें
उनके आँसू उनका दिल उनका इतंज़ार
क्या वो घोंसले से निकाल फ़ेकते हैं
और उड़ जाते हैं सब कुछ झटक कर
कहीं बहुत दूर बिना यादों के

Thursday 24 September 2015

जीवन का मतलब


धीरे -धीरे जिंदगी से शिकायतों की गठरी भर ली 
उस गठरी से बहुत कुछ अच्छा
पीछे छूटकार बिख़रता गया
जिसे न बटोर पाए न वक्त से देख़ा गया 
अब जिंदगी बेतरतीबि से रख़े सामान की तरह हो गई है
मन करता है की काश?
जिंदगी रेशम पर पड़ी सिल्वटों सी होती 
मुट्ठी भर पानी के छीटें मारते 
प्रेस करते और नए सिरे से जीते 
या जिंदगी की इबारत 
कच्ची स्याही से लिखी होती 
अगर बारिश में भीग चुकी होती 
नए सफ़े से फ़िर शुरू होती
पर नहीं कुछ बदल पाते 
उन्ही सिलवटों में बाहर निकलने
का रास्ता ढूंढ़ते 
पक्की स्याही का रंग नहीं धुलता 
इसलिए जीवन में रंग सजाने की
कोशिश जारी रख़ते 
फ़िर से जीने की तमन्ना में
तमाम रातें मौत को गले मिलने का न्यौता देकर
धोख़े से रास्ता बदल लेते हैं
क्या करे सिलवटों और फ़ैली स्याही में 
जीने की आदत जो बरसों से पड़ी है
क्या इंसान वाकई जीवन का मतलब
सारी ज़िंदगी समझ नहीं पाते 

Thursday 10 September 2015

यादों का बहाना



तेरी यादों को मैं झूठे बहाने बना कर 
कहीं छोड़ आइ थी 
पर वो दबे पाँव वापस लौट आइं थी 
उसने मुझे बहाना ये बताया
की मेरे ज़हन से अच्छा आशियाना न पाया
कलाइ पर जो लिखा था तेरा नाम
उस पर जब पड़ती है किसी की प्रश्न भरीं नज़र 
लोगो को बातें बनाने के लिए मिलती होगी नई ख़बर 
पत्थर से घिसने पर भी नहीं छूटता वो लहू में मिला रंग 
तू ने पल-पल मरने की सजा दे दी 
उस पर किसी फ़कीर ने मुझे 
लम्बी हो जिंदगी ये दुआ दे दी 
सब कुछ छोड़ कर तूने लम्बे सफ़र की तैयारी कर ली 
और मुझे आँसुओं को न आने की ताकीद कर दी 
अब तो हर लम्हा तेरी याद साथ है 
शायद वो हाथ की लकीर बन गई है 
ज़िंदगी जो क़बूल नही हुइ
वो दुआ बना गई है

Sunday 30 August 2015

दर्द रिस्ता है मोम की चट्टानों से



दर्द रिस्ता है मोम की चट्टानों से 
सुन कर लोग फ़ेर लेते हैं चेहरे 
इन अफ़सानों से 
जो निरंतर चले जा रहे हैं
किस्मत की अंधेरी बंद गलियों  में 
उन्हें देख़ते हैं शरीफ़ लोग 
ख़िडकियाँ बंद कर मकानों से 
दर्द की दवाएँ लिख़ी हैं कुर्सी के विज्ञापन में 
ख़ूबसूरत वादे
टंगे हैं खजूर के पेड़ में 
चीथड़ों में लिपटी बेबस जिंदगियाँ
आशाओं से भरी आँख़ें, ख़ामोश चेहरे 
भीड़ है वृक्ष के नीचे,अमृत की तलाश में 
अंधेरी है इनकी सुबह उदास है शाम 
और हम जो अपने से ही हैं बेख़बर 
हमारी तरफ़ ही है उनकी नज़र 
शीशे में तैरता अट्टहास 
या दर्द में ख़िलती मुस्कान
हमें न जाने कब होगी उनकी पहचान
अब और नहीं बहलेगा उनका मन 
ख़ालि पेट और सूनी आंख़ो में 
दिख़ते हैं मख़मलि सपनें
एक फटा हुआ बिछौना
मुट्ठी भर चावल के दानें 
धूप और बारिश से बचाता एक टूटा आशियाना 
बुझता हुआ सा एक चिराग़
जीवन बीत रहा लड़ता हुआ 
अज्ञान के वीरानों से 
दर्द रिस्ता है
मोम की चट्टानें से

Thursday 20 August 2015

विशाल वृक्ष


मैं बचपन से वृक्ष बनना चाहती थी 
एक विशाल वृक्ष जिसकी जड़ें बहुत गहरी हों 
जिसकी शाखाएँ बहुत लम्बी हों 
जिससे मुझे एक ठहराव मिले 
पर ईश्वर ने मुझे बनाया है
एक सुंदर और कोमल पौधा 
जिसे हर कोइ अपनी मर्जी से रोपता है 
वो जैसे-जैसे बड़ा होता है 
वैसे -वैसे उसका स्थानांतरण होता है 
मुझे रखने वाले पात्र की पहचान बदलती जाती है 
कभी पिता,कभी पती,कभी बेटा 
पौधा जगह बदलते, बदलते
कुम्हला जाता है 
हर बार अपनी जड़ें जमाने
की कोशिश में और उखड़ जाता है
सभी को उम्मीदें हैं उससे 
ढेर सारी छाँव की
फ़ल पत्तियाँ और छाल की 
कोइ भी पौधे के मन के अंदर नहीं झाँकता 
पौधा घुटन भरी चीख से चींख़ता है 
मैं एक विशाल वृक्ष बनाना चाहता हूँ 
कोमल पौधा नहीं

Friday 14 August 2015

मेरा प्यारा गाँव


सोच रहा हूँ आज अपने गाँव लौट ले
गांवों में अब भी कागा मुंडेर पर नज़र आते हैं
उनके कांव - कांव से पहुने घर आते हैं 
पाँए लागू के शब्दों से होता है अभिनंदन
आते ही मिल जाता है 
कुएँ का ठंडा पानी और गुड़ धानी
नहीं कोइ सवाल क्यों आए कब जाना है 
नदी किनारे गले मे बाहें डाले 
कच्चे आम और बेरी के चटकारे
और वो सावन के झूले
आंसू से नयन हो जाते गीले 
वो रात चाँदनी, मूंज की खाट 
बाजरे की रोटी चटनी के साथ
बीते बचपन की गप्प लगाते 
दिल करता कभी न लौटे शहर 
जहाँ जिंदगी बन गई तपती दोपहर 
जहाँ नहीं है उचित
जाना हो बिना सूचित
अच्छा खाना है पर रिश्तों में स्वाद नहीं 
महंगी जरूर है वहाँ की शामे 
पर तारों वला आसमान नहीं खरीद पाते 
 प्यार से गले में बाहँ डाल फरमाते
हाँ तुम्हें जाना कब है रिज़र्वेशन तो होगा 
नज़रें चुरा के कह जाते की 
वक्त पता नहीं कहाँ गुम है 
वो मूंज की ख़ाट और गहरी नींद 
नर्म बिछोने पर करवट बदलते रात भर 
बड़े घर में छोटा सा दिल
और वहाँ छोटी सी झोपड़ी में दो ख़ुली बाहें

Monday 10 August 2015

अश्क बहाना है मना



आज मेरी कलम ने किया है मना 
किसी की याद में अश्क बहाना है मना
आज कोइ नज्म नई बना
उस गली और मोड़ के शब्दों को ले 
जहॉं तू कभी खड़ा था अकेले
तब भी तो तू सुकून से जीता था 
आज फ़िर उन पुरानी राहों को नाप आ
जिनकी वीरानगी पर तू चलकर होता था ख़फ़ा
गम दे कर भूल जाना जिसकी फ़ितरत थी
तूने क्यों उसकी यादों को
सीने से लगाने की जरूरत की 
पुरानी यादों को रेज़ा-रेज़ा हो जाने दे
बेइन्तेहा बेकस हो कर डूब मत 
परेशांहाली में मयख़ाने के अंदर 
पैमाने मत तौल 
बाहर आ और ख़ुली फ़िजा में सांस ले 
चार कदम आगे बढ़ और ज़िदंगी को थाम ले 
आज मेरी कलम ने किया है मना 
किसी की याद में अश्क बहाना है मना

Tuesday 4 August 2015

मेरी बेटी और डायबिटीज़


तुम आइ थी जब मेरी गोद में 
मुझे लगा एक परी छुपी हुइ थी
जैसे बादलों की ओट में 
तुम्हारी शरारतें वो चंचलता
तुम्हारा बचपन अभी बीता भी न था 
और भाग्य दे गया बहुत सी चुभन
तुम में है अदभुत प्रतिभा 
तुम हो सुंदरता की प्रतिमा 
तुम्हारी ये सुइयों से दोस्ती
तुम हँस कर छिपा लेती हो 
अपने आँखों के मोती 
तुम्हारी उम्र के सुनहरे ख्वाब
और आगे बढ़ने का जज़्बा
तुम्हारा साहस और हिम्मत संग
रोज़ डायबिटीज़ से लड़ने की जंग 
तुम्हारा युवा मन बहुत कुछ करना चाहता है 
पर तुम्हारा भाग्य कुछ निणनय टालता भी है
हर रोज़ सुइयों की चुभन 
और तुम्हारा कोमल तन
मेरे मन को एक एक सुइ से 
गहरे भेदता जाता तुम्हारा तकलीफों वाला जीवन
तुम मेरा गम मुस्कुरा कर बाँटना चाहती हो 
कहती हो माँ मेरे जैसे है लाखों बच्चे 
पर क्या करूँ मैं एक माँ जो हूँ

मेरी बेटी १२ साल से टाइप वन डायबिटिक है...

Friday 31 July 2015

तक़दीर का कैनवास


बड़े ही ख़ूबसूरत रंगों से भरा हुआ था
ज़िंदगी का कैनवास 
अचानक से सारे रंग छलक गए
वो मेरे सूर्तेहाल और मुसतकबिल को 
पूरा का पूरा भिगो गए 
अब नया कैनवास है 
उसके लिए नहीं बचा कोइ रंग 
नया कैनवास मेरे वजूद की 
पहचान बन गया है 
डर लगता है 
रंगो को छूने में, क्योंकि?
छलके थे जब सारे रंग 
मिलकर बन गए थे स्याह रंग 
जिससे बनती है ख़ौफ़नाक तस्वीर
जिससे लिखी जाती है 
एक अपमान वाली भाषा 
जिससे बनती है भयानक आँखें
जो बंद दरवाजे के बाद भी घूरती रहती है 
उस कैनवास में अब
बिना रंगो वाली तस्वीर बन गई है 
जिसमें नजर आते है 
हिरास, बदर्जए-मजबूरी, बदरौनक और हिज्र 
उस कैनवास को स्याह रंगों से बचा कर रखना
बमुशिकल है ।

Friday 24 July 2015

तुम्हारा प्यारा सा नाम


तुम आती हो नए घर संसार में 
सपने हजारों हैं अपनों के प्यार में 
सुबह मंदिर की प्रार्थना में 
औरों का दुख दर्द
मांगती अपने हिस्से में 
सबको खिलाने के बाद 
आधे पेट खाने से ही हो जाती तृप्त
तुम्हारा पसीना है टपकता 
सारा आशियाना है चमकता
रसोइ का धुअाँ बहुत गहरा
तुम्हारा अस्तित्व नहीं कुछ कह रहा
घर के अंदर से बाहर तक 
उसी के कंधे पर है टिकी
घर की एक -एक मंयार
तुम खो गई उस घर में
पर जब घर के द्वार पर दस्तक होती है  
हर कोइ पूछता है 
दरवाज़े पर लगी नेम-प्लेट वाले शख्स को 
तुम्हारा नाम उस घर में कहीं गुम गया है
तुम्हें तो रिश्ते आपना नाम दे चुके हैं
पत्नी, बहू, माँ और भाभी का
कब वक्त आएगा कि लिखा हो 
घर के बाहर तुम्हारी पहचान के साथ
तुम्हारा प्यारा सा नाम

Saturday 18 July 2015

केसी ये तेरी रज़ा



तूने कभी मुझे चाहा ही नहीं
पर तूने मुझे प्यार के भ्रमजाल में भरमाया तो सही
तेरी बातें कच्चे रंग सी धुल के निकली
तेरे वादे बिन पानी वाले बादलों से हल्के निकले 
सच्चे प्यार में तूने वफ़ा की आजमाइश की 
और तूने बेवफ़ाइ की हद पार की 
मैने तो अख़िरि सांस तक किया तेरा इतंजार
पर तूने तोड़ डाली मेरी आस की पतवार
प्रेम की परिभाषा पढ़ने के तेरे तरीके कभी थे ही नहीं सही
पर तूने मेरे मरने पर झूठा मातम मनाया तो सही
तू मेरी कबर पर आया तो बार-बार 
पर गुलाब में छुपा कर कांटे भी लाया हजार 
केसी ये तेरी रज़ा
देती रही मुझे हर पल सज़ा

Tuesday 14 July 2015

कीमती मोती



आज मैने आँसू की एक बूंद में 
बहुत सारे अक्श हैं देखे
वो तेरी मेरी उसकी आँख का पानी
सबकी अलग है कहानी
बचपन के मासूम मोती 
जब आँखों में भर आएँ
माँ कुछ देर भी गर
आँखों से ओझल हो जाए
किशोरों की आँखें
अचानक से कब भर आएँ
व्याकुल मन का पंछी
पिंजरा तोड़ने को झटपटाए
युवा मन और ख़ामोश सिसकियाँ
एकांत में घंटों भिगोते सिरहाने
नाकामि, विरह, त्याग
अनगिनत कहानियाँ 
एक प्रोढ़ आँखों के आँसू
बेटा चला गया विदेश
बेटी को बिदा किया परदेस
बड़े दिनों के बाद उनकी आती है जब चिठ्ठी
रुला जाते हैं उनके न आने के कारण
एक वृद्ध की आँख़ों के आँसू
सिर्फ आँसू ही आँसू
फर्श पर बेटे की मौत बिख़रि पड़ी
उसकी किरचें आँखों में है गढ़ी
औलाद का गम, जिसकी थी जीने की उम्र
कहीं जीवनसाथी अलविदा कह गया
अकेलेपन की सज़ा दे गया
इस उम्र का आँसू
जो सूखता भी नहीं
रुकता भी नहीं
और बहता भी नहीं 

Saturday 11 July 2015

मै कौन हूँ ?


मै कौन हूँ और क्या हूँ
क्या तुम मुझे हो जानते
बस चंद है मेरी ज़रूरतें 
किताब की दुकान देख रुक जाती हूँ 
अच्छे और सुंदर सफे लिए बिना रह नहीं पाती हूँ
सुंदर कलम तलाशती आँखें
सांसारिक रंग ढ़ंग कुछ नहीं आता 
बस कुछ लिख़ने के लिए एकांत मुझे है भाता 
सुकून मिलते ही 
मृगमरिचिका ख़ींचती है मुझे 
पानी की तलाश की तरह विषय ढ़ूँढती आँखें
सफेद वस्त्रों पर
काले मुखौटों पर 
इंसान के अंदर का जानवर या जानवर में छुपा इंसान
देश विदेश और समाज
वो मधुशाला और टूटते प्याले
नायिका का विरह 
नायक की मौत
आँसुओं का सैलाब 
वो बेवफ़ाइ का आलम 
क्या कुछ नही देखता अपनी अंदर की आख़ों से 
बेहतर सृजन की कोशिश में बीतता दिन 
अजनबी रुक जाओ
कैसी लगी मेरी रचना इतना बताते जाओ
मै तुम्हें नहीं जानती पर 
हमारी रचनाओं की आपस में गहरी दोस्ती है

Wednesday 8 July 2015

कंकड़ सा मैं, मोती सी तुम - मुदित श्रीवास्तव



कंकड़ सा मैं मोती सी तुम 
आकार भले ही समान हो 
प्रकार है लेकिन भिन्न 

कंकड़ मैं बदसूरत 
न चमक न कोई रंग ढंग का 
मोती तुम सफ़ेद झक्क 
है चमक और है ख्याती तुम्हारे अंग का

कंकड़ मैं नाकारा सा 
कही भी मिल जाऊं मुंह उठाकर
मोती तुम उत्कृष्ठ सी 
रख ले हर कोई अंगुल या कंठ में 
मालाओं में पिरोकर, सजाकर 

कंकड़ मैं कठोर सा 
मरा हुआ, निर्जीव 
पैरो में लोगो के तले पड़ा हुआ 
मोती तुम मर्म सी 
प्रिय हो लोगो को 
अस्तित्व है, तुम्हारा 
लोगो की उंगलियो में जड़ा हुआ 

है कैसे संभव मेल 
एक कंकड़ का एक मोती से 
तुम रईसों की ठाठ हो 
और मैं बच्चों का खेल 

- मुदित श्रीवास्तव

Friday 3 July 2015

तेरे जाने के बाद से न आया वैसा सावन


तेरे जाने के बाद से न आया वैसा सावन
जब गिरता था सूखी धरती पर 
वो बारिश का पहला पानी
सारे अरमानों को जगा देती थी
मिट्टी की सौंधी खुशबू
 दिल की किताब के जब पलटते हैं पन्ने 
उस बारिश की एक बूंद
अब भी आँखों में कहीं अटकी हुई है 
वो बारिश में भीगनें की उम्र 
छप -छप करते तेरे वो कदम 
पायल के घुंघरू की आवाज़ मुझे बुलाती थी 
झलक दिख जाती अगर वो
बारिश की बूदें हथेली पर समेटने छत पर आती 
उतना ही काफी था तमाम बंदिशों में
दिल कुछ और ज़्यादा नहीं मांगता था 
तुम्हारी वो झलक ज़हन में
अब भी कहीं कैद है
बस वक्त के साथ उड़ गई
वो मिट्टी की और यादों की खुशबू
अब बारिश आती तो है
पर दिल को नहीं छूती
अब तो बस यादें हैं 
एकांत में मुस्कुराने के लिए
तेरे जाने के बाद से न आया वैसा सावन ।

Friday 26 June 2015

एक पिता


पिता शब्द का अहसास 
याद दिलाता है हमें
की कोइ बरगद है हमारे आस -पास
जिसकी शीतल छाया में
हम बेफ़िक्र हो कर सो सकें
जीवन में गर आए कोइ दुख 
तो उन विशाल कंधों पर
सर रख कर
जी भर कर रो सकें
वो ऐसा मार्गदर्शक है 
जो पहले खुद उन रास्तों पर
चल कर अंदाज़ा लगाता है
की अगर जिंदगी में हम गिरे तो
क्या वो खाइ हमारा
आत्मविश्वास बचा पाएगी ?

दूरदर्शिता इतनी गहरी
क्या अच्छा अौर क्या बुरा 
वो हमारे जीवन का
एक दोस्त भी और एक प्रहरी
स्वप्न हम देखते आगे बढ़ने के
वो अपने छालो वाले हाथों से
गति देता हमारे पँजों को
जो उसने अपनी उम्र में संजोए थे ख्वाब
उनमें वो पंख लगाता है
हमारे लिए बेहिसाब
उसकी नींदे ख़ाली होती सपनो से
क्योंकि ?
कंधो पर ढेरों ज़िम्मेदारी 
सुला देती है नींद  गहरी और भारी

Wednesday 24 June 2015

तुम्हारी पहचान


उस दिन बहुत कोशिश की हमने 
तुम्हें पहचानने की
पर दृष्टि धुँधलाती रही 
याददाश्त के पृष्टों को
पर हम पहचान गए थे तुम्हें 
तुम हमसे किसी मोड़ पर टकराए थे 
सोचा होगा तुमने 
कि अगली मंज़िल तक शायद ?
हम तुम्हारे कदमों के साथ 
कदम मिला लेगें
पर रास्ते वीरान नहीं थे 
रास्ते थे काफ़ी पथरीले
और नुकीले पत्थर 
लगातार हमें चुभते रहे 
तुम करते रहे अनुमान
कि हमारे और तुम्हारे कदम 
साथ पड़ रहे हैं
हम सोचते ही रहे केवल 
कि तुम्हें आवाज़ दें 
जिसके हल्के या भारीपन से 
तुम समझ लोगी हम कहाँ है
क्योकिं हम मंज़िल से दूर हो चले थे
और इसी कश्मकश में 
समय के साथ तेजी से चलती
तुम्हारी ज़िंदगी 
काफी आगे निकल चुकी थी 
तुम तक पहुँच पाना
मेरे लिए
अपनी तमाम साधारणता के साथ 
असंभव था लगभग 
यादगार भर बन गई 
उस दिन की यात्रा 
सपनों के काँच महल 
हक़ीक़त की पथरीली ज़मीन पर छोड़
ख़त्म कर दी 
तुमने अपनी यात्रा |

Tuesday 16 June 2015

सावन की बूँदें


सावन की बूँदें जब 
टिप -टिप हथेली पर गिरती हैं 
एक -एक यादों की पहेली 
धीमें- धीमें खुलती है

दिल में बंद यादों की पहेली
वो है उसकी सबसे अच्छी सहेली
खुलती है जब खिलखिलाति है तब
बीते सुनहरे पलों में वो उसे ले जाती है 

जहाँ थी भीगी चुनरी
झूले की पीगें
धूएँ की सौंधी खुशबू 
गर्म चाय के प्यालों में घुलती थी 
वो नज़रों का कहीं थम जाना 

कुछ पल ठहरना
ठहर कर वापस आ जाना
वापस आते आते
हज़ारों पलों की सौगातें समेट लाना
बादलों के बीच बिजली का शोर 

अचानक से हाथ थामने को 
कर देती मजबूर 
वो तेज़ आवाज़ जब थमती 
चेहरे पर मोती बिखेर जाती

बारिश न थमे 
सिर्फ थमे तो यह वक़्त
उन चंद पलों में
जी ली उसने सारी ज़िन्दगी

Tuesday 9 June 2015

ये पागल मन


मेरा रूप माँ बहन बेटी या गृहणि का रहता है
पर मेरा मन हर दिन नई कविता कह लेता है
शंखनाद हो जाता है
सुबह के सूरज की लालिमा से
उद्गम हो जाता है सरिता का
बहने लगते हैं शब्द कई
उन्हें मैं चुनती जाती हूँ
पहल करती हूँ ईश्वर की पूजा से
बच्चों की मासूमियत से
आँगन की रांगोली से 
सूखे आंटे में, अंगुलियाँ फिरा के
कई शब्द चुन लेती हूँ
फिर रोटी की पीठी में
शब्दों को गढ़ देती हूँ
दूसरे पहर आते -आते
मेरी कविता भी कुछ पल 
पड़ाव पर आकर विश्राम कर लेती है
ढलते सूरज के पल
घर लौटते पंछी 
शाम की आरती से
सभी अपनों का इंतज़ार खत्म होता है
अपनी जिम्मेदारी के लिबास को उतार कर 
धवल चाँदनी की खामोशी में
दिनभर के चुने हुए शब्दों से
कविता का अंतिम रूप सजता है
ये पागल मन ऐसे ही हर दिन 
नई कविता रचता है |

Monday 8 June 2015

अधूरी कहानी


सब रंग भर दिए पर तस्वीर अभी अधूरी है 
बातें बहुत कही और सुनी हमनें 
पर मुलाकात अब भी अधूरी है
मंजिल तक जाना मजबूरी थी
पर सफ़र अब भी अधूरा है
अधूरी तस्वीर पूरी करदो
रेत पर बनी है तस्वीर
इसे पानी के रंग से भर दो
मुलाकात अब पूरी कर दो
कहानी जो अधूरी थी
उसे मुझे सुनने वाले
शब्दों से भर दो 
उस मजिल तक
तुम साथ जाना चाहते थे
अब आ भी जाओ
तुम्हारे इंतज़ार में
सफर के बीच में
जहाँ रुकी थी मैं
उस खाली स्थान को भर दो 
इस आत्मा को
शरीर के बंधन से मुक्त कर दो
रेत की तस्वीर थी
पानी का रगं था
लहरें उसे अपने साथ वापिस ले गई 
ढूंढ़ती रही आँखें पुराने निशान
तस्वीर, मुलाकात, मंज़िल
कुछ नहीं था दूर तक बस एक खामोशी 
लहरों की हल चल और पक्षियों का कलरव |

Tuesday 2 June 2015

आँखों की नीलामी


कल बाज़ार में बड़ा शोर था
किस बात का हल्ला चारों ओर था
क्या किया तुम्ने ? 
मैने कहा - कल मैने अपनी आँखें
बड़े अच्छे दामों में बेच दी
ये मेरी हैसियत से ज़्यादा 
बड़े -बड़े सपने देखा करती थी
इस ज़माने में दाल - रोटी कमाने में 
हौसला परास्त हो जाता है
ये जब देखती है
रात का अंधकार काले साए
अबला नारी चीख पुकार 
अपहरण हत्या और अत्याचार
तब ये लाल हो जाती है
लहू के रगं सी 
इनके लाल होने से मैं बहुत डर जाता हूं
क्योंकि ज़ुबान बदं रखना और
मुट्ठी को भिचें रखना पड़ता है 
कसकर
वरना जुनून सवार हो जाता है
हर एक को आँखों के रंग में रंगने का
मैं कब से सोच रहा था 
की इनके लाल होने से पहले 
इनको बेच दूँगा
इसलिए मैने चुपचाप सौदा कर लिया
पर सौदा आखों का था न
इसलिए बड़ा शोर था 
अब नई आँखें हैं
पत्थरों की तरह 
न सपनें देखती न दुनिया की हलचल !


Thursday 28 May 2015

मेरी आसमानी रगं की डायरी


तुम मेरी आसमानी रगं की डायरी के पन्नों में बसे हो
बिना बोले आ जाती है हवा
और जब हर पन्ने को खोलकर चली जाती है
तब यादों की खुशबू
मेरे चारों ओर फैल जाती है
और घटों मैं अपने आप से
बातें करने लगती हूँ
वो कमरे में तुम्हारे होने का अहसास
खिड़की पर रखे रजनीगंधा के फूल 
वो ख़त 
वो किताबों में रख़ी सूखी पख़ुडियाँ
उस कमरे की हवा 
मुझसे लिपट कर अतीत में ले जाने की कोशिश करती है
एक अजीब सी अकेलेपन की सिहरन
नसों में दौड़ जाती है
मुझे तुम्हारी सारी बातें याद हैं
इसलिए अब दौहराने
को कुछ बचा ही नहीं
मुझे पता है तुम कहीं नहीं हो 
पर तुम मेरी यादों में हो
तुम मेरी आसमानी रगं की
डायरी के पन्नों में बसे हो |

Monday 25 May 2015

इंतज़ार


हालातों ने उसकी खुशी को
कही दफ़ना दिया
उससे छीन कर उसकी मुस्कुराहट को
कहीं छिपा दिया
चाहती थी वो सूरज की किरनों से पहले
दौड़ कर धरा को छू लू
गुन-गुनी धूप सी गरमाइश
हाथों में हुआ करती थी
जाड़े में गुलमोहर के नीचे
इंतज़ार खत्म होता था
और सर्द हवाओं में
काँपते उसके हाथ 
होते थे तुम्हारे हाथों में
वो गरमाइश अब बर्फ हो गई 
वो कभी न खत्म होने वाली
बातों का सिलसिला
अब कभी-कभी कानों मे
कहीं दूर गूंजता सा है
वो तुम्हारी उपमा
सुबह के सूरज की आभा
चहरे से बहुत दूर हो चली है
अब माथे पर लकीरें हैं
पगडंडियों की तरह
जिनमें खो कर अपने आप को ढूँढना
बहुत मुश्किल है
वो झुके हुए कंधे और बढ़ता हुआ बोझ
पुराने वक़्त को किसी खोए हुए सिक्के की तरह
ढूँढती है आँखें ।

Friday 22 May 2015

स्त्री


मैं स्त्री हूँ इसलिए मैं 
हर रिश्ते को काटती और बोती हूँ 
हर रिश्ते के रास्ते से मैं गुज़री हूँ 
हर रिश्ते को मैने जिया है
हर रिश्ते की कड़वाहट को मैंने पिया है
मैं एक स्त्री हूँ इसलिए मैंने 
फटे टूटे नए पुराने सभी रिश्ते सिए हैं 
सब रिश्तों को दम घुटने से बचाती हूँ
इसलिए पता नहीं मैं इस फेर में 
कितनी बार जीती और मर जाती हूँ 
कुछ रिश्ते ही सुख देते हैं 
बाकी सब तो घावों से दुख देते हैं 
पर मजबूरी सबको ढोना है
रिश्ते के ताने बांने का बिछौना है 
नीदं भले ना आए 
इसी पर हर स्त्री को सोना है |

Wednesday 20 May 2015

अरुणा शानबाग को श्रद्धांजली



जिस्म ने अपनी
हल - चल खो दी थी  
पर आत्मा अब भी
जंग लड़ रही थी
कानो में पिघल रहा था
लाचारी बेबसी और  
भयानकता का शोर
जिस मोड़ पर देखे थे
सुनहरे सपने  
मन के अंधेरे कोने में
बंद पड़े थे
आत्मा ने बहुत कोशिश की
इन बेजान सांसो में
फिर खुशियाँ भर पाँऊ
मन के अंधेरे कोने में
बंद पड़े सुनहरे सपनों
की गठरी को
खोल कर सजाया भी
उसके सामने, पर
हालात से चोट खाया जिस्म
आत्मा के मोह में नहीं आया
वह अपने सुनहरे सपनों को लेकर
वापस ज़िन्दगी की ओर
मुड़ नहीं पाया ।