Sunday 18 February 2024

कुछ पंक्तियाँ दिल से...

~ 1 ~

 बड़ा अजीब है जनाब ये तेरा शहर 

आँखों में बड़े बड़े ख़्वाब लिए सारी रात 

बेचैनी से यहाँ से वहाँ

भागता ही रहता है 

तभी तो ये रात भर 

जागता रहता है 

सागर तेरा शहर सोता क्यों नहीं ।

 

~ 2 ~

जब भी कभी नया दोस्त मैं 

बनाता हूँ, पता नहीं क्यों 

मेरे पीठ के पीछे के 

ख़ंजरों में इज़ाफ़ा क्यों हो जाता है ।


~ 3 ~

समंदर से सीखा है मैंने 

जिसके पास 

अश्क़ो का सैलाब होता है 

वो रोया नहीं करते ।


~ 4 ~

उसने कहा एक ख़्वाब

की तरह मेरी यादों को भुला चुका हूँ 

मैंने उन ख़्यालों को 

ज़िम्मेदारियों के फ़्रेम में 

संभाल कर रखा है ।

 

Sunday 21 January 2024

वो एक नदी यादों की


वो एक नदी यादों की 

मेरे साथ बहती बहती 

एक कहानी बन गई 

मैं वो तुम्हें सुनाना चाहती थी 

मुकम्मल होने तक कहानी 

तुम्हारी ख़ामोशी है ज़रूरी 

पर क्या तुम मौन रहोगे 

क्या तुम मुझे सुन रहे होगे 

बहुत कठिन होता है 

किसी को ख़ामोशी से सुनना 

तुम्हारी आंखो को 

मुझे समझना होगा 

क्योंकि वो दिमाग़ के

अनचाहे वाकयात को 

बंया कर देती हैं 

मेरी यादें मेरी कहानी 

वो शतरंज का खेल है न

उससे मिलती जुलती है 

तुमने कहा एक प्यारा शब्द 

कल कॉफी शॉप में बैठ कर 

तफ़सील से सुनूँगा 

मैंने कहा अपने आप से 

पर वहाँ तो मुझे अपनी कहानी 

घर पर छोड़ कर जानी होगी 

नए दौर का नया फ़रमान 

वो मेरा तफ़हीम से कहना 

उस माहौल में मेरी कहानी 

शब्द शब्द बदलना होगा मुझे 

क्योंकि तुम कदर-शनास नहीं 

कभी कभी मुझे लगता है 

मेरी कहानी 

उँचे पेड़ पर टंगी 

मुझे चिढा रही है 

की मैं न कभी 

सुना सकूँगी 

वो एक नदी सी 

मेरे साथ-साथ 

बहती रहेगी...

Saturday 21 October 2023

आओ मौसम की पहली बारिश में ज़िंदगी ढूँढे


 पिछली बारिश के जमा पलों की गुल्लक खोलें 
उसमें थे बंद कुछ पल रजनीगंधा से महके हुए 
कुछ पल सिलाइयों से उधड़े हुए 
कुछ पल जो हमने वक़्त से थे चुराए भीगे से 
पहली बारिश की नम मिट्टी से सौंधे अल्फ़ाज़ 
आँगन के गड्ढों में जमा हुआ पानी 
काग़ज़ की नाव बनाकर
ख़ुशियों से मुस्कुराते चेहरे 
सीली हुईं लकड़ी से उठता हुआ धुआँ 
चाय में घुला हुआ 
धुएँ के इस पार वजूद है 
उस पार बस एक ख़लिश है 
पहली बारिश में 
ज़िंदगी ढूंढता हर शख़्स 
आओ पहली बारिश में ज़िंदगी ढूंढें ...  

Thursday 28 September 2023

थकते पंख अब सिमट से गए हैं


स्त्री और समेटना दोनों शब्द एक दूसरे के पूरक हैं 

बचपन से ही माँ सिखाती है 

अपना कमरा समेट कर रखो 

कपड़े किताबें बिखरा हुआ सामान 

हम माँ के रूप में इस शब्द को 

समझते और अपने आप में 

ढालते चले जाते हैं 

माँ कितना कुछ समेटती है 

अपनी ज़िंदगी को 

कठिनाइयों के दर्द को बिखरे हुए रिश्तों को 

अपने पल्लू को 

जिसमें काम की यादों की गांठे लगी हुई हैं 

अपने सुनहरे बालों को 

जो उसके सुंदर से चेहरे पर 

अटखेलियों करते हैं 

हम स्त्रियाँ सारी ज़िंदगी 

घर को समेट कर उसे 

जीवन देते हैं 

अपनी सांसो से सींचते है 

हर समेटी हुई चीजों के बीच में 

अपनी महत्वकांक्षाओं को भी 

बड़ी उम्मीद से 

समेट देते हैं 

की पता है कभी पूरी नहीं होने वाली 

जब अपनी इच्छाओं के पंखों को 

समेट लेते हैं तोसभी के उन्नति के 

द्वार खुल जाते हैं 

इक उम्र के बाद 

उड़ान भरे हुए पंख 

और थके हुए पंखों 

के बीच की कहानी कोई समझ पाए 

आराम की तलाश में 

सुकून भरे घोंसले की आस में 

स्त्री और पंख