Saturday 21 October 2023

आओ मौसम की पहली बारिश में ज़िंदगी ढूँढे


 पिछली बारिश के जमा पलों की गुल्लक खोलें 
उसमें थे बंद कुछ पल रजनीगंधा से महके हुए 
कुछ पल सिलाइयों से उधड़े हुए 
कुछ पल जो हमने वक़्त से थे चुराए भीगे से 
पहली बारिश की नम मिट्टी से सौंधे अल्फ़ाज़ 
आँगन के गड्ढों में जमा हुआ पानी 
काग़ज़ की नाव बनाकर
ख़ुशियों से मुस्कुराते चेहरे 
सीली हुईं लकड़ी से उठता हुआ धुआँ 
चाय में घुला हुआ 
धुएँ के इस पार वजूद है 
उस पार बस एक ख़लिश है 
पहली बारिश में 
ज़िंदगी ढूंढता हर शख़्स 
आओ पहली बारिश में ज़िंदगी ढूंढें ...  

Thursday 28 September 2023

थकते पंख अब सिमट से गए हैं


स्त्री और समेटना दोनों शब्द एक दूसरे के पूरक हैं 

बचपन से ही माँ सिखाती है 

अपना कमरा समेट कर रखो 

कपड़े किताबें बिखरा हुआ सामान 

हम माँ के रूप में इस शब्द को 

समझते और अपने आप में 

ढालते चले जाते हैं 

माँ कितना कुछ समेटती है 

अपनी ज़िंदगी को 

कठिनाइयों के दर्द को बिखरे हुए रिश्तों को 

अपने पल्लू को 

जिसमें काम की यादों की गांठे लगी हुई हैं 

अपने सुनहरे बालों को 

जो उसके सुंदर से चेहरे पर 

अटखेलियों करते हैं 

हम स्त्रियाँ सारी ज़िंदगी 

घर को समेट कर उसे 

जीवन देते हैं 

अपनी सांसो से सींचते है 

हर समेटी हुई चीजों के बीच में 

अपनी महत्वकांक्षाओं को भी 

बड़ी उम्मीद से 

समेट देते हैं 

की पता है कभी पूरी नहीं होने वाली 

जब अपनी इच्छाओं के पंखों को 

समेट लेते हैं तोसभी के उन्नति के 

द्वार खुल जाते हैं 

इक उम्र के बाद 

उड़ान भरे हुए पंख 

और थके हुए पंखों 

के बीच की कहानी कोई समझ पाए 

आराम की तलाश में 

सुकून भरे घोंसले की आस में 

स्त्री और पंख