Saturday 28 May 2016

माँ की परछाई


माँ तुम्हारी परछाई को
धीरे धीरे अपने में
समाहित होते देख रही हूँ 
बचपन का खेल
तुम्हारी बिंदी और साड़ी से 
अपने को सजाना 
फिर कुछ वर्षों बाद
तुम्हारी जिम्मेदारियों में 
तुम जैसा बन्ने की
कोशिश में तुम्हारा
हाथ बटाना
जब विदा हुई नए परिवेश में
तब हम तुम एक परछाई के 
दो हिस्से हो गए 
अब मैं और भी तुममे 
ढल जाती हूँ 
प्यार ममता सुख दुःख 
सब आँचल में समेटना 
सीख लिया है
वो बचपन में ज़रा सी चोट पर 
आंसू बहाना
पर अब  चूल्हे की लपटों से 
झुलसे हाथों को 
छुपाना सीख गयी हूँ
अब मैंने तुम्हारी परछाई को 
पूरा अपने में डुबो दिया है 
वो बचपन का खेल नहीं था 
वो एक बेटी का माँ के रूप में 
ढलने की शायद शुरुआत होती है । 

Saturday 7 May 2016

चांदनी रातें


वो गर्मी की चांदनी रातें 
बेवजह की बेमतलब की बातें
कितनी ठंडक थी उन रातों में
अब भी समाई है कहीं यादों में 
वो बिछौने और उन पर डले गुलाबी चादर 
अपने अपने हिस्से  के तारों को 
गिनने की आदत 
वो सारे दोस्तों का छत पर 
हुजूम लगाना
देर तक जाग कर 
बातों में मशरूफ हो जाना 
वो वक़्त था या
मुट्ठी की रेत
अब दिलों की तपिश में 
वो ठंडक घुल गयी है
वो चादरें महताब 
अब बंट गया है 
अपने अपने हिस्से के तारों में 
वो याराना बातें 
अब सलीकों में ढल गयी है 
अब अरसे से बंद पड़े
छत पर जाने वाले दरवाजे में
दीमक पड़ गयी है औपचारिकता की
अब कभी नज़र उठा के
आसमान की ओर देखती भी हूँ
तो वह मुझे पागल की उपमा देकर 
मुस्कुरा देती है