Thursday 22 December 2016

वो नदी बोली क्यों नहीं


वो शाम मैं भूलना चाहता हूँ
वो पगडंडियाँ जो जाती थी 
तुम्हारे घर की ओर
हर शाम गायों के लौटने की 
पदचाप, उनके गले की घंटियाँ
धूल उड़ाती झुण्ड में 
निकल जाती थी 
तभी चराग रोशन
करने की वेला 
उस मद्धिम दिए 
की रौशनी में 
तुम्हारा दूधिया चेहरा 
धूल के गुबार में से 
कुछ धुंधला
पर नज़र तोह आता था 
मुझे तुम्हारे राह देखने का
यह तरीक़ा बड़ा 
मन को भाता था 
पर इस बारिश ने
सब पर सीलन डाल दी थी 
तीलियाँ नहीं जली तो
रौशनी भी नहीं बिखरी 
रात नदी का पानी 
इतना क्यों हुआ खफा 
की मुझे मुँह चिढ़ा गया 
नदी सब कुछ बहा ले गयी 
मेरा ईंट पत्थरों का मकान 
तुम्हारा स्नेह के तिनकों से बना घर 
अमीरी और गरीबी 
पर नदी बोली क्यों नहीं 
वो ख़ामोशी से 
तुम्हे साथ ले गयी 
आखिरी बार 
तुम्हारे चेहरे को 
देखने की ख्वाइश 
मन में रह गयी . . .

Wednesday 7 December 2016

तुझे खोकर



माँ तुझे खोकर तेरी यादों को पाया है
वो चेहरा जो रोज़ नज़र में था
आज दिल में समाया है
ढलती सेहत ने
तुम्हारी नींद कहीं छुपा दी थी
तुम्हें खोकर आज
सारा घर जाग रहा
तुम्हारी नींद बहुत लंबी है
शांत शरीर में बीमारी की थकान नहीं
चिंताओं की माथे पर
कोई शिकन नहीं
वो जिजीविषा शब्द
तुम्हारे रोम रोम से
फूटता था
ईश्वर की मर्ज़ी या तेरे जाने का बहाना
हर बंधन तूने तोड़ दिया
अब तुझे नहीं है वापस आना
अल्मारी में रखी तेरी साड़ी
उसकी तह उस दिन के बाद से
मैंने नहीं खोली है
कि कहीं उड़ न जाए
वो तेरे अहसास की खुशबू
जो मुझे भ्रमित करती है
कि तू कहीं मेरे
आस पास ही है

Saturday 11 June 2016

चाँद का पैगाम


कल जब परदेस में
तनहा बैठा था मैं 
मेरे देश के चाँद ने हौले से कहा 
वापस आजा ओ परदेसी 
तेरे देश में भी मैं चमक रहा 
उन सिक्को की आबोताब में 
मत खो जा 
तेरे अपने बड़े बेसब्री से 
राह तक रहे हैं 
जा उनका रुखसार चमका 
बेजान कागजों के ढेर 
अपने रिश्तों को
पाने में कर देगा देर 
माँ का आखिरी सांस तक इंतज़ार 
नहीं दोबारा कर पाएगा 
पिता से आँखें चार 
जिसे छोड़ गया था सावन में 
वो मौसम सिमट गया है 
उन दो आँखों के आँगन में 
बिन बादल बरस जाती है 
भिगो जाती है सुर्ख दामन 
कोई तेरा अपना 
तुझसे सवाल कर रहा 
कुछ तो बता जा 
कब तू इधर का रुख कर रहा 
तेरी पेशवाई के लिए 
वो ढेरों ख्वाब बुन रही  
फिज़ाओं में घुल जाने दे 
तेरी हसी जिसने औरों को खामोश कर रखा 

Saturday 28 May 2016

माँ की परछाई


माँ तुम्हारी परछाई को
धीरे धीरे अपने में
समाहित होते देख रही हूँ 
बचपन का खेल
तुम्हारी बिंदी और साड़ी से 
अपने को सजाना 
फिर कुछ वर्षों बाद
तुम्हारी जिम्मेदारियों में 
तुम जैसा बन्ने की
कोशिश में तुम्हारा
हाथ बटाना
जब विदा हुई नए परिवेश में
तब हम तुम एक परछाई के 
दो हिस्से हो गए 
अब मैं और भी तुममे 
ढल जाती हूँ 
प्यार ममता सुख दुःख 
सब आँचल में समेटना 
सीख लिया है
वो बचपन में ज़रा सी चोट पर 
आंसू बहाना
पर अब  चूल्हे की लपटों से 
झुलसे हाथों को 
छुपाना सीख गयी हूँ
अब मैंने तुम्हारी परछाई को 
पूरा अपने में डुबो दिया है 
वो बचपन का खेल नहीं था 
वो एक बेटी का माँ के रूप में 
ढलने की शायद शुरुआत होती है । 

Saturday 7 May 2016

चांदनी रातें


वो गर्मी की चांदनी रातें 
बेवजह की बेमतलब की बातें
कितनी ठंडक थी उन रातों में
अब भी समाई है कहीं यादों में 
वो बिछौने और उन पर डले गुलाबी चादर 
अपने अपने हिस्से  के तारों को 
गिनने की आदत 
वो सारे दोस्तों का छत पर 
हुजूम लगाना
देर तक जाग कर 
बातों में मशरूफ हो जाना 
वो वक़्त था या
मुट्ठी की रेत
अब दिलों की तपिश में 
वो ठंडक घुल गयी है
वो चादरें महताब 
अब बंट गया है 
अपने अपने हिस्से के तारों में 
वो याराना बातें 
अब सलीकों में ढल गयी है 
अब अरसे से बंद पड़े
छत पर जाने वाले दरवाजे में
दीमक पड़ गयी है औपचारिकता की
अब कभी नज़र उठा के
आसमान की ओर देखती भी हूँ
तो वह मुझे पागल की उपमा देकर 
मुस्कुरा देती है

Saturday 9 April 2016

मुसाफ़िर


तुम मेरी नज़मो के मुसाफ़िर बन गए हो
आते जाते चंद मुलाकात होती रहती है
पर अब धीरे-धीरे तुमने उस ज़मी को
हथिया लिया है
और इक खूबसूरत सा मकान
बना लिया है
नज़मों की गलियों में
जब तुम नहीं होते
बहुत ख़ामोशी सी छाई रहती है
लफ्जों के दरमियाँ
अब नज़्म चाहती है
तुम्हारी रौनके लगी रहे
ये मकान खाली ना रहे
तुम आओ
हकीकत बन के
तुम्हारी आने की आहट सी न लगे

Wednesday 6 April 2016

रोटी


ऊँचा पद बढ़ता रौब
कुर्सी का रुतबा
अधिनस्तोकी फ़ौज
जोड़ते हाथ विनती के
घुटता दम मरता स्वाभिमान
आस और उम्मीद
किस चीज की
पेट की आग बुझाने वाली
बरसात रोटी और पैसा
बहुत नीचे खड़ा है वो
पता नहीं दिखेगा भी की नहीं
उसकी विनती और लाचारी वाला कद
बहुत ही न्यून है
कुर्सी से उसे उम्मीद बहुत है
दोनों हाथो को जोड़ते वक्त
अपने स्वाभिमान को
पैरो तले रौंदता हुआ पाता है
सब कुछ समेट लेता है
गाँव परिवार झोपड़ी
जिम्मेदारी बीमारी
उन्हीं दो हाथों में उसकी विनती के अंदर
चार पैसों की आस वाली नौकरी
कुर्सी की आँखें बहुत घाघ हैं
वो देखना चाहती हैं की कितना कुछ खून
निचोड़ा जा सकता है
चंद पैसों के बदले 

Monday 21 March 2016

तेरी तलाश


एक अरसे से
मेरी तलाश जारी है
पर यादों की किरचें जो
मेरी राहों पर पड़ी है
उनकी चुभन मुझे शिकस्त दिये जा रही हैं
कल तेरी तलाश में मैं
पुराने शहर का चक्कर लगा आया
तलाश मुक्कमल तो नहीं हुई
पर वो पुराने शहर को मैं
सालों बाद भी नहीं भुला पाया
पुराना पता हाथ में था लिया
हस रहा था हर शक्स मुझ पर
कह रहे थे लोग कई
ये कौन है बंजारा
फिर रहा है मारा-मारा
इसे कोई समझाओ
शहर लोग पते सब बदले
पर मैंने तेरे इन्तेज़ार में
पत्थरों पर थे जो निशान उकेरे
उनमे नहीं हुई कोई तब्दीली
उस जगह पर अब इक फकीर
रोज शाम को चिराग रौशन करता है
उस पत्थर पर ज़मी धूल के नीचे
कुछ यादें दफन हैं
उस धूल को समेट कर
आखरी इन्तेजार के साथ
तलाशता रहा तुम्हें

कुछ वक्त वहां ठहर के 

Friday 19 February 2016

वो ठहरा हुआ चाँद


मेरे सिरहाने वाली खिड़की 
तब से मैने ख़ुली ही रख़ी है 
क्योंकि उसके ठीक सामने 
चाँद आकर रुकता है 
एक छोटे तारे के साथ 
मेरे पास बहुत से सवालों
के नहीं है हिसाब
वर्षों से रोज़ रात 
मेरे सिरहाने बैठ कर 
बेटी पूछती है 
"माँ , पापा कभी लौट कर आएंगे क्या ?"
मैं खिड़की पर थमे हुए चॉंद में 
तुम्हारी तस्वीर उसे दिखाती हूँ 
हमारी अच्छी चीज़ें 
चॉंद अपने पास रखता है 
हाँ वो साथ वाला छोटा तारा 
तुम्हारी बात सुन रहा है 
और वो चाँद को बताएगा 
आने वाली कल रात को 
जो कभी नहीं आने वाली 
चाँद से बेटी को बहलाती हूँ 
वो खुली ख़िडकी
मेरे बहुत से सवालों के 
जावाब देने के काम आती है ।

Friday 12 February 2016

ऐ वीर तुझे अनंत नमन


ये कहकर गया था जब अबकी बार आउंगा
माँ गोद में तेरी सर रख कर जी भरकर सोउँगा ।
लाल मेरा तू तो है भारत माता का प्रहरी
इसीलिये नींद तेरी रहती थीं आँखों से ओझल
कभी न वो तेरी पलकों में ठहरी ।
पर माँ का दिल आज अचानक से दरक गया
क्यों आज पूजा का थाल हाथ से सरक गया ।
जहां कहीं मेरे जिगर का टुकड़ा होगा 
आज नहीं तो कल लौटेगा ।
हर नई सुबह 
आस उम्मीद का एक नया दीप जला होगा 
माँ ने याद किया होगा 
बचपन से जवानी तक का सफरनामा ।
पत्नी ने याद किए होंगें 
सारी जिंदगी साथ निभाने के वचन
वो सिदूंर मंगलसूत्र और चूड़ीयों में बसे सुनहरे पल ।
बहुत सी जंग जीती जीवन में 
पर अब वो कौन सी जंग हार गया ।
एक माँ को जिम्मेदारी का आखिरी नमन कर 
दूजी माँ की गोद में सोने को आतुर 
लम्बी नींद को चला गया ।
नहीं डरा वो वीर सपूत
पूरी मुस्तेदी से डटा रहा
अपनी ज़िम्मेदारी को दर्ज करा गया ।

Thursday 28 January 2016

मेरी ज़िम्मेदारी


वो माँ का झूठ मूठ में पतीला खनकाना 
सब भरपेट खाओ बहुत है खाना 
फटी हुइ साड़ी को शाल से ढक लिया 
मेरी फीस का सारा जिम्मा अपने सिर कर लिया 
रात में ठंड से काँपती रहे
और मुझे दो-दो दुशालें से ढांपती रहे 
मैं बरस दर बरस बढ़ता गया 
मेरी भावनाओं, ख़यालातों का दायरा घटता गया 
मैंने तुझसे दूर जा कर 
सिक्कों का महल बनाया 
वक्त को मोहरा बना कर 
तरक्की के सारे दरवाज़ों को खोलता गया 
पर तेरी ओर जाने वाले दरवाजे को खोलना ही भूल गया 
दूर रहकर भी तू पूछती 
तेरी आवाज़ कुछ सर्द है
क्या जीवन में कुछ कमी या कोइ दर्द है 
माँ तेरी बीमारी, लाचारी 
डाक्टर और दवा का इतंज़ार 
धंसती आँखें बंया कर रही थी
जर-जर होते शरीर की कहानी बार-बार 
पिता का काँपते हाथों से 
पुरानी दराज़ में पैसे टटोलना 
अनुभवी आँखों का सही अंदाज़ा
पर कुछ ना बोलना 
बेबसी और लड़खड़ाते कदम
आखिरी सांस और
अनंत आशिर्वाद और प्यार का संगम
ईश्वर मेरे बेटे को हमेशा ख़ुश रख़ना
उसके हिस्से के दुख़ दर्द मेरे सिर करना 
माँ तुझे मेरे प्यार और सहारे की चाहत
जाने क्यों नहीं दी मैंने उन्हें राहत