Friday 26 June 2015

एक पिता


पिता शब्द का अहसास 
याद दिलाता है हमें
की कोइ बरगद है हमारे आस -पास
जिसकी शीतल छाया में
हम बेफ़िक्र हो कर सो सकें
जीवन में गर आए कोइ दुख 
तो उन विशाल कंधों पर
सर रख कर
जी भर कर रो सकें
वो ऐसा मार्गदर्शक है 
जो पहले खुद उन रास्तों पर
चल कर अंदाज़ा लगाता है
की अगर जिंदगी में हम गिरे तो
क्या वो खाइ हमारा
आत्मविश्वास बचा पाएगी ?

दूरदर्शिता इतनी गहरी
क्या अच्छा अौर क्या बुरा 
वो हमारे जीवन का
एक दोस्त भी और एक प्रहरी
स्वप्न हम देखते आगे बढ़ने के
वो अपने छालो वाले हाथों से
गति देता हमारे पँजों को
जो उसने अपनी उम्र में संजोए थे ख्वाब
उनमें वो पंख लगाता है
हमारे लिए बेहिसाब
उसकी नींदे ख़ाली होती सपनो से
क्योंकि ?
कंधो पर ढेरों ज़िम्मेदारी 
सुला देती है नींद  गहरी और भारी

Wednesday 24 June 2015

तुम्हारी पहचान


उस दिन बहुत कोशिश की हमने 
तुम्हें पहचानने की
पर दृष्टि धुँधलाती रही 
याददाश्त के पृष्टों को
पर हम पहचान गए थे तुम्हें 
तुम हमसे किसी मोड़ पर टकराए थे 
सोचा होगा तुमने 
कि अगली मंज़िल तक शायद ?
हम तुम्हारे कदमों के साथ 
कदम मिला लेगें
पर रास्ते वीरान नहीं थे 
रास्ते थे काफ़ी पथरीले
और नुकीले पत्थर 
लगातार हमें चुभते रहे 
तुम करते रहे अनुमान
कि हमारे और तुम्हारे कदम 
साथ पड़ रहे हैं
हम सोचते ही रहे केवल 
कि तुम्हें आवाज़ दें 
जिसके हल्के या भारीपन से 
तुम समझ लोगी हम कहाँ है
क्योकिं हम मंज़िल से दूर हो चले थे
और इसी कश्मकश में 
समय के साथ तेजी से चलती
तुम्हारी ज़िंदगी 
काफी आगे निकल चुकी थी 
तुम तक पहुँच पाना
मेरे लिए
अपनी तमाम साधारणता के साथ 
असंभव था लगभग 
यादगार भर बन गई 
उस दिन की यात्रा 
सपनों के काँच महल 
हक़ीक़त की पथरीली ज़मीन पर छोड़
ख़त्म कर दी 
तुमने अपनी यात्रा |

Tuesday 16 June 2015

सावन की बूँदें


सावन की बूँदें जब 
टिप -टिप हथेली पर गिरती हैं 
एक -एक यादों की पहेली 
धीमें- धीमें खुलती है

दिल में बंद यादों की पहेली
वो है उसकी सबसे अच्छी सहेली
खुलती है जब खिलखिलाति है तब
बीते सुनहरे पलों में वो उसे ले जाती है 

जहाँ थी भीगी चुनरी
झूले की पीगें
धूएँ की सौंधी खुशबू 
गर्म चाय के प्यालों में घुलती थी 
वो नज़रों का कहीं थम जाना 

कुछ पल ठहरना
ठहर कर वापस आ जाना
वापस आते आते
हज़ारों पलों की सौगातें समेट लाना
बादलों के बीच बिजली का शोर 

अचानक से हाथ थामने को 
कर देती मजबूर 
वो तेज़ आवाज़ जब थमती 
चेहरे पर मोती बिखेर जाती

बारिश न थमे 
सिर्फ थमे तो यह वक़्त
उन चंद पलों में
जी ली उसने सारी ज़िन्दगी

Tuesday 9 June 2015

ये पागल मन


मेरा रूप माँ बहन बेटी या गृहणि का रहता है
पर मेरा मन हर दिन नई कविता कह लेता है
शंखनाद हो जाता है
सुबह के सूरज की लालिमा से
उद्गम हो जाता है सरिता का
बहने लगते हैं शब्द कई
उन्हें मैं चुनती जाती हूँ
पहल करती हूँ ईश्वर की पूजा से
बच्चों की मासूमियत से
आँगन की रांगोली से 
सूखे आंटे में, अंगुलियाँ फिरा के
कई शब्द चुन लेती हूँ
फिर रोटी की पीठी में
शब्दों को गढ़ देती हूँ
दूसरे पहर आते -आते
मेरी कविता भी कुछ पल 
पड़ाव पर आकर विश्राम कर लेती है
ढलते सूरज के पल
घर लौटते पंछी 
शाम की आरती से
सभी अपनों का इंतज़ार खत्म होता है
अपनी जिम्मेदारी के लिबास को उतार कर 
धवल चाँदनी की खामोशी में
दिनभर के चुने हुए शब्दों से
कविता का अंतिम रूप सजता है
ये पागल मन ऐसे ही हर दिन 
नई कविता रचता है |

Monday 8 June 2015

अधूरी कहानी


सब रंग भर दिए पर तस्वीर अभी अधूरी है 
बातें बहुत कही और सुनी हमनें 
पर मुलाकात अब भी अधूरी है
मंजिल तक जाना मजबूरी थी
पर सफ़र अब भी अधूरा है
अधूरी तस्वीर पूरी करदो
रेत पर बनी है तस्वीर
इसे पानी के रंग से भर दो
मुलाकात अब पूरी कर दो
कहानी जो अधूरी थी
उसे मुझे सुनने वाले
शब्दों से भर दो 
उस मजिल तक
तुम साथ जाना चाहते थे
अब आ भी जाओ
तुम्हारे इंतज़ार में
सफर के बीच में
जहाँ रुकी थी मैं
उस खाली स्थान को भर दो 
इस आत्मा को
शरीर के बंधन से मुक्त कर दो
रेत की तस्वीर थी
पानी का रगं था
लहरें उसे अपने साथ वापिस ले गई 
ढूंढ़ती रही आँखें पुराने निशान
तस्वीर, मुलाकात, मंज़िल
कुछ नहीं था दूर तक बस एक खामोशी 
लहरों की हल चल और पक्षियों का कलरव |

Tuesday 2 June 2015

आँखों की नीलामी


कल बाज़ार में बड़ा शोर था
किस बात का हल्ला चारों ओर था
क्या किया तुम्ने ? 
मैने कहा - कल मैने अपनी आँखें
बड़े अच्छे दामों में बेच दी
ये मेरी हैसियत से ज़्यादा 
बड़े -बड़े सपने देखा करती थी
इस ज़माने में दाल - रोटी कमाने में 
हौसला परास्त हो जाता है
ये जब देखती है
रात का अंधकार काले साए
अबला नारी चीख पुकार 
अपहरण हत्या और अत्याचार
तब ये लाल हो जाती है
लहू के रगं सी 
इनके लाल होने से मैं बहुत डर जाता हूं
क्योंकि ज़ुबान बदं रखना और
मुट्ठी को भिचें रखना पड़ता है 
कसकर
वरना जुनून सवार हो जाता है
हर एक को आँखों के रंग में रंगने का
मैं कब से सोच रहा था 
की इनके लाल होने से पहले 
इनको बेच दूँगा
इसलिए मैने चुपचाप सौदा कर लिया
पर सौदा आखों का था न
इसलिए बड़ा शोर था 
अब नई आँखें हैं
पत्थरों की तरह 
न सपनें देखती न दुनिया की हलचल !