Saturday 18 August 2018

भागती ज़िन्दगी


चाँदनी रात के साये में 
जागते और भागते लोग 
आँखों में नींद कहाँ है 
सपने आँखों से भी बड़े हैं 
न नींद में समाते 
न आँखों को आराम पहुँचाते 
आज की रात खत्म होती नहीं 
उससे पहले कल का दामन 
थामने की जल्दी 
ज़िन्दगी ने तो जैसे
जद्दो - जहद की हद कर दी 
कासिब का हिसाब 
कदो हैसियत से छोटा होता जा रहा है
ये चाँद और सूरज
शहर को जगाते और
भगाते हैं 
उम्र से लम्बी सड़कों पर
भागने वाला मन 
आँखों के सपने 
एक दिन खुली हथेली से 
फिसल कर 
दूर कहीं टूट कर 
बिखर जाते हैं 
लम्हा लम्हा पकड़ने की चाह में 
ज़िन्दगी पता नहीं कब 
राख होकर उड़ जाती है 

Sunday 12 August 2018

ये आवारा मन


उसने रोकना नहीं चाहा
उसे रुकना नागवार लग रहा था
बहुत दिनों पहले कांच टूट चुका था
गाहे बगाहे चुभ जाता गल्‍ती से
पर सोच रही हूं
इसे फेंका क्‍यों नहीं
पर ये किसी कूड़ेदान तक
नहीं ले जाया जा सकता
क्‍यों ऐसा क्‍या है ?
मन के भारीपन से
ज्‍यादा भारी तो नहीं होगा
ये रिश्तों की किरचें हैं
दिखती नहीं हैं
इसलिये समेटी नहीं जाती
काश ऊपर वाले ने
रिश्तों के टूटने का भी
एक मर्तबान बनाया होता
उठा के किसी कूड़ेदान में
फेंक आते सारा का सारा
ताकि ये मन की आवारगी
और आशोब सब
खामोशी से दफन हो जाते
गले को हिचकियों से
तंग नहीं करते
आंखो को आँसुओं से
नम नहीं करते

Saturday 16 June 2018

तुम्हे लड़ना होगा


मीलों दूर तक पसरे हुए ये रास्ते
कभी कभी बोझिल हो जाते हैं कदम 
जाने पहचाने रास्तों को 
देर नहीं लगती अजनबी बनने में 
जब सफर होता है तन्हा
और मंज़िलें होती गुम
रौशनी में नहाये हुए बाज़ार 
रौनकों से सजी हुई दुकाने 
पर मैं कुछ अलहदा 
ढूंढ़ रही हूँ खरीदने के वास्ते 
ढेर सारी खामोशियाँ 
सौदागर बोला
इसका व्यापार नहीं होता
पर मिल जाएगी तो
ला दूंगा 
तुम सजा लेना 
अपने आस - पास 
मेरे मन का हकीम
कभी कभी दिलासा देने
आ जाता है 
खंडहरों के रास्ते से 
की कभी न कभी ढूँढ लाऊंगा
गहरे ज़ख्मों की दवा
क्योंकि अभी तुम युद्ध के मैदान में हो 
और जंग जीतने तक
लड़ना है तुम्हे 
मंझे हुए घुड़सवार यूं ही नहीं
गिरा करते
जीवन के युद्ध में 
पीठ दिखा कर 
हिम्मत हारा नहीं करते 


Tuesday 5 June 2018

उम्र ठहरती नहीं


एक उम्र जो गुम हो गई 
आज बहुत ढूंढा मैंने
अपनी उम्र को 
पता नहीं कहाँ चली गई 
नहीं मिली
रेत की तरह 
मुट्ठी से फिसल गई
या रेशा रेशा हो कर 
हवा में उड़ गई
बारिश की बूँद की तरह
मिट्टी में गुम हो गई
सूरज की किरणों के साथ
पहाड़ों के पीछे छिप गई
वो मुझे जैसे छू कर
कहीं ठहरी ही नहीं
गुज़रती ही गई
हम उम्र के अंदर
कहीं ठहर जाते हैं
पर उम्र हममें कहीं नहीं ठहरती
ढलान से लुड़कता हुआ
मिट्टी का मर्तबान है 
ये ज़िन्दगी
आखिर में जीवन
टूट कर बिखर जाता है
पंचतत्त्व में
विलीन होने के लिए

Sunday 28 January 2018

अजनबी अजनबी


यह जीवन जब 
भीड़ में गुम हो जाने के बाद 
धीरे - धीरे तन्हा होता है 
धीरे - धीरे पंखुड़ियों से 
सूख कर बिखर जाते हैं यह रिश्ते 
प्यार स्नेह और अपनेपन की 
टूट जाती है माला 
धीरे - धीरे हर मन का 
गिरता जाता है 
धीरे - धीरे कम हो जाता है 
अपनों की आवाज़ों का कोलाहल 
अल्फ़ाज़ बहुत हैं दिल में पर 
धीरे - धीरे शब्दों का 
अजनबी हो जाना
धीरे - धीरे ख़त्म होती 
अहसासों की धड़कन 
धीरे - धीरे कमज़ोर होते धागे 
अपने से अपनों तक के 
जिनमें  पड़  जाती है 
कई गाठें 
पहले इंसान 
अजनबी सी भीड़ में 
शामिल होता है 
भीड़ में खोकर अपना सब कुछ 
वापस भीड़ से अलग 
अजनबी बन जाता है 
हर एक शख़्स एक दुसरे से है 
अजनबी अजनबी . . .