सुन कर लोग फ़ेर लेते हैं चेहरे
इन अफ़सानों से
जो निरंतर चले जा रहे हैं
किस्मत की अंधेरी बंद गलियों में
उन्हें देख़ते हैं शरीफ़ लोग
ख़िडकियाँ बंद कर मकानों से
दर्द की दवाएँ लिख़ी हैं कुर्सी के विज्ञापन में
ख़ूबसूरत वादे
टंगे हैं खजूर के पेड़ में
चीथड़ों में लिपटी बेबस जिंदगियाँ
आशाओं से भरी आँख़ें, ख़ामोश चेहरे
भीड़ है वृक्ष के नीचे,अमृत की तलाश में
अंधेरी है इनकी सुबह उदास है शाम
और हम जो अपने से ही हैं बेख़बर
हमारी तरफ़ ही है उनकी नज़र
शीशे में तैरता अट्टहास
या दर्द में ख़िलती मुस्कान
हमें न जाने कब होगी उनकी पहचान
अब और नहीं बहलेगा उनका मन
ख़ालि पेट और सूनी आंख़ो में
दिख़ते हैं मख़मलि सपनें
एक फटा हुआ बिछौना
मुट्ठी भर चावल के दानें
धूप और बारिश से बचाता एक टूटा आशियाना
बुझता हुआ सा एक चिराग़
जीवन बीत रहा लड़ता हुआ
अज्ञान के वीरानों से
दर्द रिस्ता है
मोम की चट्टानें से