Sunday, 30 August 2015

दर्द रिस्ता है मोम की चट्टानों से



दर्द रिस्ता है मोम की चट्टानों से 
सुन कर लोग फ़ेर लेते हैं चेहरे 
इन अफ़सानों से 
जो निरंतर चले जा रहे हैं
किस्मत की अंधेरी बंद गलियों  में 
उन्हें देख़ते हैं शरीफ़ लोग 
ख़िडकियाँ बंद कर मकानों से 
दर्द की दवाएँ लिख़ी हैं कुर्सी के विज्ञापन में 
ख़ूबसूरत वादे
टंगे हैं खजूर के पेड़ में 
चीथड़ों में लिपटी बेबस जिंदगियाँ
आशाओं से भरी आँख़ें, ख़ामोश चेहरे 
भीड़ है वृक्ष के नीचे,अमृत की तलाश में 
अंधेरी है इनकी सुबह उदास है शाम 
और हम जो अपने से ही हैं बेख़बर 
हमारी तरफ़ ही है उनकी नज़र 
शीशे में तैरता अट्टहास 
या दर्द में ख़िलती मुस्कान
हमें न जाने कब होगी उनकी पहचान
अब और नहीं बहलेगा उनका मन 
ख़ालि पेट और सूनी आंख़ो में 
दिख़ते हैं मख़मलि सपनें
एक फटा हुआ बिछौना
मुट्ठी भर चावल के दानें 
धूप और बारिश से बचाता एक टूटा आशियाना 
बुझता हुआ सा एक चिराग़
जीवन बीत रहा लड़ता हुआ 
अज्ञान के वीरानों से 
दर्द रिस्ता है
मोम की चट्टानें से

Thursday, 20 August 2015

विशाल वृक्ष


मैं बचपन से वृक्ष बनना चाहती थी 
एक विशाल वृक्ष जिसकी जड़ें बहुत गहरी हों 
जिसकी शाखाएँ बहुत लम्बी हों 
जिससे मुझे एक ठहराव मिले 
पर ईश्वर ने मुझे बनाया है
एक सुंदर और कोमल पौधा 
जिसे हर कोइ अपनी मर्जी से रोपता है 
वो जैसे-जैसे बड़ा होता है 
वैसे -वैसे उसका स्थानांतरण होता है 
मुझे रखने वाले पात्र की पहचान बदलती जाती है 
कभी पिता,कभी पती,कभी बेटा 
पौधा जगह बदलते, बदलते
कुम्हला जाता है 
हर बार अपनी जड़ें जमाने
की कोशिश में और उखड़ जाता है
सभी को उम्मीदें हैं उससे 
ढेर सारी छाँव की
फ़ल पत्तियाँ और छाल की 
कोइ भी पौधे के मन के अंदर नहीं झाँकता 
पौधा घुटन भरी चीख से चींख़ता है 
मैं एक विशाल वृक्ष बनाना चाहता हूँ 
कोमल पौधा नहीं

Friday, 14 August 2015

मेरा प्यारा गाँव


सोच रहा हूँ आज अपने गाँव लौट ले
गांवों में अब भी कागा मुंडेर पर नज़र आते हैं
उनके कांव - कांव से पहुने घर आते हैं 
पाँए लागू के शब्दों से होता है अभिनंदन
आते ही मिल जाता है 
कुएँ का ठंडा पानी और गुड़ धानी
नहीं कोइ सवाल क्यों आए कब जाना है 
नदी किनारे गले मे बाहें डाले 
कच्चे आम और बेरी के चटकारे
और वो सावन के झूले
आंसू से नयन हो जाते गीले 
वो रात चाँदनी, मूंज की खाट 
बाजरे की रोटी चटनी के साथ
बीते बचपन की गप्प लगाते 
दिल करता कभी न लौटे शहर 
जहाँ जिंदगी बन गई तपती दोपहर 
जहाँ नहीं है उचित
जाना हो बिना सूचित
अच्छा खाना है पर रिश्तों में स्वाद नहीं 
महंगी जरूर है वहाँ की शामे 
पर तारों वला आसमान नहीं खरीद पाते 
 प्यार से गले में बाहँ डाल फरमाते
हाँ तुम्हें जाना कब है रिज़र्वेशन तो होगा 
नज़रें चुरा के कह जाते की 
वक्त पता नहीं कहाँ गुम है 
वो मूंज की ख़ाट और गहरी नींद 
नर्म बिछोने पर करवट बदलते रात भर 
बड़े घर में छोटा सा दिल
और वहाँ छोटी सी झोपड़ी में दो ख़ुली बाहें

Monday, 10 August 2015

अश्क बहाना है मना



आज मेरी कलम ने किया है मना 
किसी की याद में अश्क बहाना है मना
आज कोइ नज्म नई बना
उस गली और मोड़ के शब्दों को ले 
जहॉं तू कभी खड़ा था अकेले
तब भी तो तू सुकून से जीता था 
आज फ़िर उन पुरानी राहों को नाप आ
जिनकी वीरानगी पर तू चलकर होता था ख़फ़ा
गम दे कर भूल जाना जिसकी फ़ितरत थी
तूने क्यों उसकी यादों को
सीने से लगाने की जरूरत की 
पुरानी यादों को रेज़ा-रेज़ा हो जाने दे
बेइन्तेहा बेकस हो कर डूब मत 
परेशांहाली में मयख़ाने के अंदर 
पैमाने मत तौल 
बाहर आ और ख़ुली फ़िजा में सांस ले 
चार कदम आगे बढ़ और ज़िदंगी को थाम ले 
आज मेरी कलम ने किया है मना 
किसी की याद में अश्क बहाना है मना

Tuesday, 4 August 2015

मेरी बेटी और डायबिटीज़


तुम आइ थी जब मेरी गोद में 
मुझे लगा एक परी छुपी हुइ थी
जैसे बादलों की ओट में 
तुम्हारी शरारतें वो चंचलता
तुम्हारा बचपन अभी बीता भी न था 
और भाग्य दे गया बहुत सी चुभन
तुम में है अदभुत प्रतिभा 
तुम हो सुंदरता की प्रतिमा 
तुम्हारी ये सुइयों से दोस्ती
तुम हँस कर छिपा लेती हो 
अपने आँखों के मोती 
तुम्हारी उम्र के सुनहरे ख्वाब
और आगे बढ़ने का जज़्बा
तुम्हारा साहस और हिम्मत संग
रोज़ डायबिटीज़ से लड़ने की जंग 
तुम्हारा युवा मन बहुत कुछ करना चाहता है 
पर तुम्हारा भाग्य कुछ निणनय टालता भी है
हर रोज़ सुइयों की चुभन 
और तुम्हारा कोमल तन
मेरे मन को एक एक सुइ से 
गहरे भेदता जाता तुम्हारा तकलीफों वाला जीवन
तुम मेरा गम मुस्कुरा कर बाँटना चाहती हो 
कहती हो माँ मेरे जैसे है लाखों बच्चे 
पर क्या करूँ मैं एक माँ जो हूँ

मेरी बेटी १२ साल से टाइप वन डायबिटिक है...