माँ तुम्हारी परछाई को
धीरे धीरे अपने में
समाहित होते देख रही हूँ
बचपन का खेल
तुम्हारी बिंदी और साड़ी से
अपने को सजाना
फिर कुछ वर्षों बाद
तुम्हारी जिम्मेदारियों में
तुम जैसा बन्ने की
कोशिश में तुम्हारा
हाथ बटाना
जब विदा हुई नए परिवेश में
तब हम तुम एक परछाई के
दो हिस्से हो गए
अब मैं और भी तुममे
ढल जाती हूँ
प्यार ममता सुख दुःख
सब आँचल में समेटना
सीख लिया है
वो बचपन में ज़रा सी चोट पर
आंसू बहाना
पर अब चूल्हे की लपटों से
झुलसे हाथों को
छुपाना सीख गयी हूँ
अब मैंने तुम्हारी परछाई को
पूरा अपने में डुबो दिया है
वो बचपन का खेल नहीं था
वो एक बेटी का माँ के रूप में
ढलने की शायद शुरुआत होती है ।
गहरे एहसासों की अभिव्यक्ति। बेहद खूबसूरत रचना। अति सुन्दर।
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका राजेश जी । आप जैसे बड़े शक्श का मेरी रचनाओं के लिया वक़्त निकलना ।
Deleteगहरे एहसासों की अभिव्यक्ति। बेहद खूबसूरत रचना। अति सुन्दर।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका राजेश जी ।-
Delete''मां की परछाईं'' मुझे बहुत भाावुक कर गई। बेटियां हमेशा पास नहीं रहतीं। सोचकर ही सिहरन दौड़ जाती है। इससे ज्याद मैं और क्या कहूं...?
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका।बेटियाँ बहुत हिम्मत वाली होती है बस यही एक बात खलती है की बो हमेशा हमारे पास नहीं रहती ।
Deleteसारे संस्कार माँ से मिलते हैं माँ में ही मिल जाते हैं ....
ReplyDeleteबहुत सुन्दर मर्मस्पर्शी रचना
बहुत बहुत आभार आपका कविता जी ।
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (30-05-2016) को "आस्था को किसी प्रमाण की जरुरत नहीं होती" (चर्चा अंक-2356) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बहुत आभार आपका शास्त्री जी
Deleteसही कहा आपने। बेटी माँ की परछाई ही होती है। बहुत सुंदर रचना।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका ज्योति जी ।
DeleteBahut sunder..
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका पम्मी जी।
Deleteहृदय कपाट पर दस्तक देती मार्मिक प्रस्तुति - बधाई
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका राकेश जी मेरी रचना को सराहने का ।
Deleteएक उम्र के बाद बेटियाँ माँ का प्रतिबिम्ब बन जाती हैं ... और सभी को प्यारी हो जाती हैं ... भावपूर्ण रचना है ...
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका नेस्वा सर जी मेरी ब्लाग के लिए वक्त देने का और सराहने का ।
ReplyDeleteसंवेदनशील रचना
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका
ReplyDeleteWah, chulhe ki lapton se zulsi hatheliyon ko chupana be tiyan seekh hee jatee hain, Maon ki parchaee ban hee jatin hain.
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका आशा जी मेरी ब्लॉग परआने का । और मेरी रचना को सराहने का |
ReplyDeleteकोमल और गहन अहसासों का बहुत प्रभावी चित्रण...बहुत ख़ूबसूरत अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका सर मेरी ब्लाग पर आने का और मेरी रचना को सराहने का ।
Deleteसुंदर और भावपूर्ण अभिव्यक्ति
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार हिमकर जी मेरी ब्लाग पर आने का और मेरी रचना को सराहने का
Deleteबहुत बहुत आभार हिमकर जी मेरी ब्लाग पर आने का और मेरी रचना को सराहने का
Deleteनारीत्व अपने आप मे माँ बेटी और बेटी माँ मे अपने प्रतिबिम्ब को समाहित कर लेते हैं।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका ।
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