Thursday, 3 August 2017

क्यों बेकार में खामखा की ज़िद


कई दिनों से खामखा की ज़िद 
वह श्रृंगार अधूरा सा क्यों है 
अब क्या और किस बात की जिरह 
मेरे पास नहीं है वो ज़ेवर 
जो तुम्हे वर्षों पहले चाहिए थे
वह सब मैंने ज़मीं में दफ़न कर दिया है 
हालात बदल गए हैं 
तुम उस ख़ज़ाने को ढूंढना चाहते हो 
और चाहते हो की उस
एक एक आभूषण को 
मैं धारण कर लूँ 
वो ख़ज़ाने का सामान 
वो कहकहे वो इंतज़ार 
वो आँखों की चमक 
वो गालों का दहक उठना 
वो बातों की खनक 
सब तुम्हारी आखरी मुलाक़ात के बाद 
वहीं दफ़न कर दिया था 
क्योंकि मुझे उन गहनों की
आदत नहीं रही 
वो श्रृंगार अब नहीं कर सकती 
क्यों बेकार में खामखा की ज़िद