पवित्र नदी, जिसे हम
माँ नर्मदा कहते हैं
अक्सर जाती हूँ
और सीढ़ी पर बैठ कर
घंटो ख़ामोशी से बहती
नदी को देखती रहती हूँ
मैं कई दिनों, महीनों, सालों से
कुछ तलाश रही थी
घाट की सीढियाँ उतरती हैं
गहरे पानी में
आखरी सीढ़ी से टकराते पानी की
आवाज़ मुझे खींच रही थी
उस आवाज़ का अनुसरण कर
वहां जाती हूँ
उस आखरी सीढ़ी पर
बैठ कर टकराते पानी की
आवाज़ सुनती हूँ समझती हूँ
मेरी तलाश को एक
मुकाम हासिल होता है
उस टकराते पानी को
ध्यान से सुनती हूँ
उस आवाज़ में मुझे
अहसास होता है की
माँ तुम यहीं हो
माँ नर्मदा ने
मुझे मेरी माँ से मिला दिया
अब माँ के जाने के बाद
जब भी मन करता है
उनसे मिलने का
आखिरी सीढ़ी के टकराते पानी से
बातें कर लेती हूँ
एक माँ ने मुझे मेरी माँ लौटा दी