तुम मेरी नज़मो के मुसाफ़िर
बन गए हो
आते जाते चंद मुलाकात होती
रहती है
पर अब धीरे-धीरे तुमने उस
ज़मी को
हथिया लिया है
और इक खूबसूरत सा मकान
बना लिया है
नज़मों की गलियों में
जब तुम नहीं होते
बहुत ख़ामोशी सी छाई रहती है
लफ्जों के दरमियाँ
अब नज़्म चाहती है
तुम्हारी रौनके लगी रहे
ये मकान खाली ना रहे
तुम आओ
हकीकत बन के
तुम्हारी आने की आहट सी न
लगे