वो शाम मैं भूलना चाहता हूँ
वो पगडंडियाँ जो जाती थी
तुम्हारे घर की ओर
हर शाम गायों के लौटने की
पदचाप, उनके गले की घंटियाँ
धूल उड़ाती झुण्ड में
निकल जाती थी
तभी चराग रोशन
करने की वेला
उस मद्धिम दिए
की रौशनी में
तुम्हारा दूधिया चेहरा
धूल के गुबार में से
कुछ धुंधला
पर नज़र तोह आता था
मुझे तुम्हारे राह देखने का
यह तरीक़ा बड़ा
मन को भाता था
पर इस बारिश ने
सब पर सीलन डाल दी थी
तीलियाँ नहीं जली तो
रौशनी भी नहीं बिखरी
रात नदी का पानी
इतना क्यों हुआ खफा
की मुझे मुँह चिढ़ा गया
नदी सब कुछ बहा ले गयी
मेरा ईंट पत्थरों का मकान
तुम्हारा स्नेह के तिनकों से बना घर
अमीरी और गरीबी
पर नदी बोली क्यों नहीं
वो ख़ामोशी से
तुम्हे साथ ले गयी
आखिरी बार
तुम्हारे चेहरे को
देखने की ख्वाइश
मन में रह गयी . . .