Thursday, 28 May 2015

मेरी आसमानी रगं की डायरी


तुम मेरी आसमानी रगं की डायरी के पन्नों में बसे हो
बिना बोले आ जाती है हवा
और जब हर पन्ने को खोलकर चली जाती है
तब यादों की खुशबू
मेरे चारों ओर फैल जाती है
और घटों मैं अपने आप से
बातें करने लगती हूँ
वो कमरे में तुम्हारे होने का अहसास
खिड़की पर रखे रजनीगंधा के फूल 
वो ख़त 
वो किताबों में रख़ी सूखी पख़ुडियाँ
उस कमरे की हवा 
मुझसे लिपट कर अतीत में ले जाने की कोशिश करती है
एक अजीब सी अकेलेपन की सिहरन
नसों में दौड़ जाती है
मुझे तुम्हारी सारी बातें याद हैं
इसलिए अब दौहराने
को कुछ बचा ही नहीं
मुझे पता है तुम कहीं नहीं हो 
पर तुम मेरी यादों में हो
तुम मेरी आसमानी रगं की
डायरी के पन्नों में बसे हो |

Monday, 25 May 2015

इंतज़ार


हालातों ने उसकी खुशी को
कही दफ़ना दिया
उससे छीन कर उसकी मुस्कुराहट को
कहीं छिपा दिया
चाहती थी वो सूरज की किरनों से पहले
दौड़ कर धरा को छू लू
गुन-गुनी धूप सी गरमाइश
हाथों में हुआ करती थी
जाड़े में गुलमोहर के नीचे
इंतज़ार खत्म होता था
और सर्द हवाओं में
काँपते उसके हाथ 
होते थे तुम्हारे हाथों में
वो गरमाइश अब बर्फ हो गई 
वो कभी न खत्म होने वाली
बातों का सिलसिला
अब कभी-कभी कानों मे
कहीं दूर गूंजता सा है
वो तुम्हारी उपमा
सुबह के सूरज की आभा
चहरे से बहुत दूर हो चली है
अब माथे पर लकीरें हैं
पगडंडियों की तरह
जिनमें खो कर अपने आप को ढूँढना
बहुत मुश्किल है
वो झुके हुए कंधे और बढ़ता हुआ बोझ
पुराने वक़्त को किसी खोए हुए सिक्के की तरह
ढूँढती है आँखें ।

Friday, 22 May 2015

स्त्री


मैं स्त्री हूँ इसलिए मैं 
हर रिश्ते को काटती और बोती हूँ 
हर रिश्ते के रास्ते से मैं गुज़री हूँ 
हर रिश्ते को मैने जिया है
हर रिश्ते की कड़वाहट को मैंने पिया है
मैं एक स्त्री हूँ इसलिए मैंने 
फटे टूटे नए पुराने सभी रिश्ते सिए हैं 
सब रिश्तों को दम घुटने से बचाती हूँ
इसलिए पता नहीं मैं इस फेर में 
कितनी बार जीती और मर जाती हूँ 
कुछ रिश्ते ही सुख देते हैं 
बाकी सब तो घावों से दुख देते हैं 
पर मजबूरी सबको ढोना है
रिश्ते के ताने बांने का बिछौना है 
नीदं भले ना आए 
इसी पर हर स्त्री को सोना है |

Wednesday, 20 May 2015

अरुणा शानबाग को श्रद्धांजली



जिस्म ने अपनी
हल - चल खो दी थी  
पर आत्मा अब भी
जंग लड़ रही थी
कानो में पिघल रहा था
लाचारी बेबसी और  
भयानकता का शोर
जिस मोड़ पर देखे थे
सुनहरे सपने  
मन के अंधेरे कोने में
बंद पड़े थे
आत्मा ने बहुत कोशिश की
इन बेजान सांसो में
फिर खुशियाँ भर पाँऊ
मन के अंधेरे कोने में
बंद पड़े सुनहरे सपनों
की गठरी को
खोल कर सजाया भी
उसके सामने, पर
हालात से चोट खाया जिस्म
आत्मा के मोह में नहीं आया
वह अपने सुनहरे सपनों को लेकर
वापस ज़िन्दगी की ओर
मुड़ नहीं पाया ।

Monday, 18 May 2015

मेरा घर कहाँ है माँ


माँ तुम बचपन से
कहती आई हो
एक दिन मैं अपने घर जाउंगी
और अपने सपने
पूरे कर लूंगी
पर माँ वहाँ जो
मेरे अपने रहते हैं
वो कहते हैं
“यह मेरा घर है
यहाँ सपनों वाली नींद की
सख़्त पाबन्दी है।”



Sunday, 17 May 2015

मेरे भाग्य का सब कुछ खो क्यों जाता है



मेरे भाग्य का सब कुछ खो क्यों जाता है
जिसमें मै खुशियाँ रखती थी
वो बक्सा कही खो गया है
बहुत कीमती था वो
किसी को मिले तो लौटा जाना
उसके खोने से
अब सब कुछ बिखर गया है
वक्त जो गया, मेरे हाथ नहीं आया
और न उसे साथ लाया
मेरे भाग्य का सब कुछ खो क्यों जाता है
मै बक्से में ताला नहीं लगाती थी
खुशियाँ उसमें समाती न थी
अब कुछ बचा ही नहीं मेरे पास
मेरा मन न खुश है न उदास
अब न इंतजार है न खोने का गम
न अब नए बक्से की जरुरत है
पर मेरा बक्सा किसी को मिले तो
मेरे पते पर पहुँचा जाना
मेरा पता
वही पलाश का पेड़
पुरानी खुशियाँ बंद पड़े - पड़े
कही गल न जाएं
मेरे पुराने दोस्तों, उन खुशियो को
धूप दिखाने आ जाना इक वार
मेरे भाग्य का सब कुछ खो क्यों जाता है ?

Thursday, 14 May 2015

वृद्धावस्था की तैयारी


वृद्धावस्था की तैयारी 
कर्मों का लेखा जोखा
शारीर नहीं दे कहीं धोखा
सहारे वाले हाथ नहीं हैं
अब बच्चों व रिश्तेदारों की बारात नहीं है
अकेली सुबह है
खाली और काली संध्या है
सन्नाटे बन गए कान के बाले
लटक-लटक कर शोर करते हैं
आराम कुर्सी है हिलने वाली
कुर्सी स्थिर है हिल रहा शारीर
कितनी लाचारी और बेबसी 
आँखें दूसरों से
आस और अपनापन मांगती सी
टूटती उम्मीद बुझती लौ
बिखरते सपने टूटे कांच से
एक - एक नश्तर चुभता दिल पे
प्राण रखे हैं बीच में दो सिल के
धीरे - धीरे सब कुछ घुटता जाता है
क्या खोया क्या पाया
कुछ भी समझ न आया
भारी मन, हाथ खाली है
चलो अब वृद्धावस्था की तैयारी है
शांत वन में सहारे वाली लकड़ी की ठक - ठक
लड़खड़ाते कदमों की धक - धक
बिन आंसू रोती आँखें
शून्य में खो जाती हैं
बचपन से जवानी, जवानी से बुढ़ापा
शान्त मन रहता, अब नहीं खोता आपा
जीवन की संध्या में कल के सूरज की आस नहीं है 
अब तो बस वृद्धावस्था की तैयारी |

Wednesday, 13 May 2015

जब दुख था नन्हा पौधा जीवन में


जब दुख था नन्हा पौधा जीवन में 
तब आँखे भर जाती थी बात बात में 

दिल पर लग जाती थी बाते हर रूप में 
तब दिमाग और दिल अलग अलग सोचते 
दिमाग बंद कमरे में था और 
दिल निकल पड़ा था अपनों की खोज में 
दिल नादान था 
बहुत ठोकरे खाता इस भाग दौड़ में 
कुछ नहीं मिला, सब से था उसे गिला 
कुंदन का मर्तबान पर, विष था भरा हुआ 
दिमाग ने दिआ उसे दिलासा 
कहना सुन मेरा ,कोई नहीं है तेरा 
अपनों से प्यार पाने की होड़ में 
लहू हो गए तेरे पैर ,अब पीछा छोड़
आंसू के सागर को सूख जाने दे 
दिमाग को बंद कमरे से बहार आने दे 
अपने दिमाग की सुन कर चल 
दिल से कह ,अब तू न बच्चों की तरह मचल 
दुनिया बहुत ख़राब है 
आसुँओ को बहाना नहीं, पीना सीख 
क्योंकि वही तो तेरे पास रखी शराब है 
इतना नशा है इसमें कि सबका दिया 
दुख डूब जाता है ,
नहीं आता फिर दिमाग होश में ।

तुमने किताब की तरह पढ़ा मुझे



तुमने किताब की तरह पढ़ा मुझे
पर समझ नहीं पाए
किस वाक्य पर रुके,किस पर हँसे और मुस्कुराए
पन्ने की तरह तुमने
दिल के किसी कोने में,मोड़ कर कुछ बंद किया था
उस मुड़े हुए पन्नें को, तुमने कभी नहीं खोला
कोई रहस्य नहीं छुपा था
उसके अंदर
बस कुछ पंक्तिया थी
जिनका अर्थ तुम्हे ढूंढ़ना था
बरसो से किताब अब भी
उसी मेज पर पड़ी है
धूल की बहुत सी परतों से ढकी है
उस झरोखे से आती हुई हवा
जब भी उस किताब के पन्नों को
खोलने की कोशिश करती है
सारे पन्ने खुल जाते है
पर वो मुड़ा हुआ पन्ना
आज भी तुम्हारे इंतजार में है
शायद तुम आओ
उस मुड़े हुऐ पन्नें को खोलो
और उन पंक्तियों का अर्थ बोलो ।

Tuesday, 12 May 2015

माँ का आँचल


पाँचों में है झगड़ा
आँचल की छाँव का है लफड़ा
माँ तेरी साड़ी कितनी प्यारी
नर्म मुलायम सतरंगी धारी
दीदी तुम दोनों गोद से उतरो
मैं हूँ सबसे छोटा
अब छुपने की मेरी बारी
माँ तेरी साड़ी में रोटी की महक समाई है
माँ का आँचल तार – तार है
उसे अपने सब बच्चों से प्यार है
फटे हुए आँचल में वो
सबको समेट लेती है
आँचल की ठंडक सबको घेर लेती है

माँ के आंचल में दुनिया समाई है |

मातृ दिवस की शुभकामना ...

Monday, 11 May 2015

मेरा आशियाना


तुम ऊँची -ऊँची मीनारे बनाओ
तुम खूबसूरत रास्ते बनाओ
नहीं बनती तुम्हारी  पहचान
क्योंकि तुम नींव का पहला पत्थर हो
हम चाहते है तुम इनमे कहीं खो जाओ
क्या तुम्हारी मंजिल है,तुम्हे नहीं पता है
पर एक से दूसरी,दूसरी से तीसरी मीनार पर  
अनबरत चलती जाती है
हर नई मीनार से
नया जन्म,नया सपना
और नया सफर शुरू होता है
जो रास्ते तुम बनाते हो
वो रास्ते तुम तक जाते ही नहीं
तुम्हारा गांव इन रास्तों से बहुत दूर है
रास्तों को सवारने में
जो पत्थर तुमने हटाए थे
वही अन्जाने में
तुमने अपनी राह में बिछाए है
मीनार के बनते ही
तुम्हारा छोटा सा आशियान
जिसकी कोई तुलना ही नहीं मीनार से
कब झोंपड़ी शब्द में तब्दील हो कर
अपना अस्तिव खो देता है
इसकी छत के नीचे,मौसम की अदला -बदली
और कुछ मीठी यादें
टूटी छत में,अब भी टंगी हैं
छोटी का पालना,और मुन्ने की चकरी
मीनार की खूबसूरती की चर्चा है चारो और
बस चुभ रहा है तो झोंपड़ा
तुम्हारे अंदर का तूफान,जिसे कोई नहीं सुन रहा
वह बहुत बौना हो गया है
तुम्हारा नया आशियाना है कहीं और
शायद कोई नई मीनार ?