कारखाने से मिली बची तन्खा
को लेकर
लौटते समय मन ने सोचा,
शायद ही अब दोबारा जी पाऊं
घर की देहलीज़ पर
कांपते कदमों ने अपनी बेबसी सुना दी
मेरा काम छूट गया
हमें अब पैदल ही
अपने गांव जाना होगा
पसीने से तर हथेली ने
नोटों को कस कर भींच लिया
कोई छुड़ा न ले जाए
मासूम गोल मटोल आँखों का सवाल
"बाबा मेरे जूते तो
सूरज काका ने सिए ही नहीं "
मेरे दिमाग के दरवाज़े बंद हैं
सोचने को कुछ नहीं है
मेरी झोली में,
रघु का दूसरा सवाल
"बाबा मुन्नी ने तो
चलना ही नहीं सीखा "
मन ने कहा अगर आता तो भी क्या
मंज़िल अब धुआं धुआं है..
कजरी ने बचे हुए सामान को
फैक्ट्री के कबाड़ खाने में रखा
तो आंसू की दो बूँद ने
सामान पर अपने हस्ताक्षर कर दिए
वापस मिलने की उम्मीद पर
कजरी का सवाल
"रघु के बाबा, हम वर्षों से
गांव नहीं गए
तुम्हे रास्ता याद तो है ना "
उसके दिमाग में
काम गूँज रहा है
मशीनें शोर कर रही है
साहब ने कहा था
"जिस रास्ते को तुम बना रहे हो
वो सीधा तुम्हारे गांव को जाता है "
मैं बहुत खुश था
मेरा गांव और मेरे गांव को जाने वाली सड़क..
पर आज जब चल कर
उसी सड़क से लौट रहा हूँ
मेरे पसीने की बूंदे
जो गिरी थी कॉन्क्रीट पर..
चमक रही है
मृगमरीचिका बन कर
अब इस अनिशचिता वाले
जीवन में
मैं सड़क के
न इस छोर पर हूँ
न उस छोर पर
बस अपनों का हाथ थामें
इस आवारगी और
बंजारेपन में
शायद ही दोबारा जी पाऊं
मौत तुम आना मत
पहले मैं गांव तो
पहुँच जाऊं ..