Friday, 16 June 2017

वो होली


वो खाकी शर्ट पर 
अब भी निशाँ होंगे 
पिछली होली के
वो अबीर का गुब्बार 
रंग कर चला गया था तुम्हे 
रंगो का इंद्रधनुष बिखेर गया था ख़ुशी 
गुलाल का रंग 
दहकते गालों में 
खो गया था 
तुम्हे रंगों की पहचान जो 
गहराइयों से थी 
अब के बरस 
बहुत सारा पानी भर था 
रंग नहीं 
वो तुम्हारी बातें 
झील सी आँखें
 रंग सारे तुम ले गए 
बस मेरे हिस्से का 
खारा पानी झीलों में
छोड़ गए 
वो शर्ट वो रंग के निशः 
वो होली 
बस गालों को भिगो गया 
खारा पानी 

Friday, 9 June 2017

ये खामोशियाँ


ये खामोशियाँ और 
इनके अन्दर छिपी हुई 
सिसकियाँ , हिचकियाँ 
बहुत धीमे धीमे घुटती आवाज़ 
कानों में उड़ेल जाती हैं 
ढेर सारा गर्म लावा 
वो स्लो पॉयजन 
फैलता जाता है 
दिमाग की नसों में 
और वहाँ जा कर 
कोलाहल बन जाता है 
मैं भागती रहती हूँ 
शान्ति की तलाश में 
कभी कभी छुपने की 
जगह तलाशती हूँ
जहाँ कभी तुम होते थे 
तुम्हारे पीछे छुपने पर 
वो मसाले वाले हाथ 
तुम्हारी उजली शर्ट का 
मेरे मसाले वाले हाथों से 
ख़राब होने का मलाल 
तुम्हारे चेहरे पर
साफ़ नज़र आता था 
तुम्हारे पीछे छुपने पर भी 
दोनों बच्चे मुझे ढूढ़ कर 
जोर से खिलखिला देते थे 
वो छुपने का खेल कितना
मासूम हुआ करता था 
अब तो अपने आप से
अपने आप को छुपा लूं तो सही 
ये आँखों की नमी 
अब बोलती नहीं 
ये खामोशियाँ और 
इनके अन्दर छुपी हुई 
सिसकियाँ , हिचकियाँ