माँ तुम्हारी परछाई को
धीरे धीरे अपने में
समाहित होते देख रही हूँ
बचपन का खेल
तुम्हारी बिंदी और साड़ी से
अपने को सजाना
फिर कुछ वर्षों बाद
तुम्हारी जिम्मेदारियों में
तुम जैसा बन्ने की
कोशिश में तुम्हारा
हाथ बटाना
जब विदा हुई नए परिवेश में
तब हम तुम एक परछाई के
दो हिस्से हो गए
अब मैं और भी तुममे
ढल जाती हूँ
प्यार ममता सुख दुःख
सब आँचल में समेटना
सीख लिया है
वो बचपन में ज़रा सी चोट पर
आंसू बहाना
पर अब चूल्हे की लपटों से
झुलसे हाथों को
छुपाना सीख गयी हूँ
अब मैंने तुम्हारी परछाई को
पूरा अपने में डुबो दिया है
वो बचपन का खेल नहीं था
वो एक बेटी का माँ के रूप में
ढलने की शायद शुरुआत होती है ।