Sunday, 4 October 2015

पत्थर बोलते नहीं


जब तुम गए मैने देख़ा ही नहीं 
क्या -क्या अपने साथ ले गए
अब मेरा बहुत सा सामान नहीं मिला रहा 
ज़्यादा कुछ नहीं बस दो चार चीज़े हैं 
मैने तुम्हें हर उस जगह पर तलाशा जहाँ तुम हो सकते थे
एक मेरा विश्वास; एक मेरी परछाई
मेरी अंतर आत्मा; मेरे शब्द 
पर तुम कहीं नहीं मिले 
मेरा सामान तो लौटा जाते 
इस बिख़रि हुइ जिंदगी को समेटने के लिए
जो तुम ले गए वो विश्वास चाहिए 
इस जीवन के कोरे कागज को 
लिख़ने के लिए वहीं शब्द चाहिए 
मेरी अंतर आत्मा बहुत ख़ामोश है
उसका मौन तोड़ने के लिए वार्तालाप का प्रहार चाहिए 
मुझे तो नहीं पर हाँ मेरी परछाइँ को आदत थी
तुम्हारे साए से रूठने और मनाने की  
उस परछाइँ को हो सकता है इतंज़ार हो 
कह दो कि तुम मेरा सामान तो लौटाने आओगे एक बार 
इंतज़ार करती आँख़ें पथरा जरूर गई हैं
पर अब ये तुम्हें नहीं रोकेंगी रोड़ा बन 
क्योंकि पत्थर बोलते नहीं