Sunday, 16 June 2013

एक सुबह ऐसी हो !


कुछ नहीं बन पाती हूँ मैं
टूट जाती हूँ, बिखर जाती हूँ
फिर कुछ सोचकर सिमट जाती हूँ मैं
जीने के लिए
न मेरा अतीत सुनहरा था
न मेरा वर्तमान चमकीला है
हर नया दिन
धुंद और कोहरा पहन कर आता है
लगता है आँखों में कुछ दिखेगा नहीं
हाथ ही टटोलेंगे
भविष्य की मज़बूत चट्टानों को
पर, यह चट्टानें धोखा न हों
बर्फ के टीलों की तरह
कि मंजिल पर कदम पड़ते ही
पिघल गई, हों झीलों कि तरह
वही खाई, कोहरा, धुंद न हो
कोई 'सुबह' मेरी हो
जिसमें मुझे मिले
अटूट विश्वास, दिपदिपाता भविष्य
और मज़बूत इरादे
धुंद और कोहरे कि दीवारों से दूर
जहाँ छल कपट, भुलावा न हो
कोई सुबह ऐसी हो
जिसमें मैं कुछ बन पाऊं
कभी टूटूं  न, कभी बिखरूँ न
सुनहरी राह पर चल पाऊं
उस मासूम बच्चे कि तरह
जो चलना सीख जाता है
तो अटूट विश्वास से
भर जाता है|