सब भरपेट खाओ बहुत है खाना
फटी हुइ साड़ी को शाल से ढक लिया
मेरी फीस का सारा जिम्मा अपने सिर कर लिया
रात में ठंड से काँपती रहे
और मुझे दो-दो दुशालें से ढांपती रहे
मैं बरस दर बरस बढ़ता गया
मेरी भावनाओं, ख़यालातों का दायरा घटता गया
मैंने तुझसे दूर जा कर
सिक्कों का महल बनाया
वक्त को मोहरा बना कर
तरक्की के सारे दरवाज़ों को खोलता गया
पर तेरी ओर जाने वाले दरवाजे को खोलना ही भूल गया
दूर रहकर भी तू पूछती
तेरी आवाज़ कुछ सर्द है
क्या जीवन में कुछ कमी या कोइ दर्द है
माँ तेरी बीमारी, लाचारी
डाक्टर और दवा का इतंज़ार
धंसती आँखें बंया कर रही थी
जर-जर होते शरीर की कहानी बार-बार
पिता का काँपते हाथों से
पुरानी दराज़ में पैसे टटोलना
अनुभवी आँखों का सही अंदाज़ा
पर कुछ ना बोलना
बेबसी और लड़खड़ाते कदम
आखिरी सांस और
अनंत आशिर्वाद और प्यार का संगम
ईश्वर मेरे बेटे को हमेशा ख़ुश रख़ना
उसके हिस्से के दुख़ दर्द मेरे सिर करना
माँ तुझे मेरे प्यार और सहारे की चाहत
जाने क्यों नहीं दी मैंने उन्हें राहत