Sunday, 28 January 2018

अजनबी अजनबी


यह जीवन जब 
भीड़ में गुम हो जाने के बाद 
धीरे - धीरे तन्हा होता है 
धीरे - धीरे पंखुड़ियों से 
सूख कर बिखर जाते हैं यह रिश्ते 
प्यार स्नेह और अपनेपन की 
टूट जाती है माला 
धीरे - धीरे हर मन का 
गिरता जाता है 
धीरे - धीरे कम हो जाता है 
अपनों की आवाज़ों का कोलाहल 
अल्फ़ाज़ बहुत हैं दिल में पर 
धीरे - धीरे शब्दों का 
अजनबी हो जाना
धीरे - धीरे ख़त्म होती 
अहसासों की धड़कन 
धीरे - धीरे कमज़ोर होते धागे 
अपने से अपनों तक के 
जिनमें  पड़  जाती है 
कई गाठें 
पहले इंसान 
अजनबी सी भीड़ में 
शामिल होता है 
भीड़ में खोकर अपना सब कुछ 
वापस भीड़ से अलग 
अजनबी बन जाता है 
हर एक शख़्स एक दुसरे से है 
अजनबी अजनबी . . .