Wednesday, 20 May 2015

अरुणा शानबाग को श्रद्धांजली



जिस्म ने अपनी
हल - चल खो दी थी  
पर आत्मा अब भी
जंग लड़ रही थी
कानो में पिघल रहा था
लाचारी बेबसी और  
भयानकता का शोर
जिस मोड़ पर देखे थे
सुनहरे सपने  
मन के अंधेरे कोने में
बंद पड़े थे
आत्मा ने बहुत कोशिश की
इन बेजान सांसो में
फिर खुशियाँ भर पाँऊ
मन के अंधेरे कोने में
बंद पड़े सुनहरे सपनों
की गठरी को
खोल कर सजाया भी
उसके सामने, पर
हालात से चोट खाया जिस्म
आत्मा के मोह में नहीं आया
वह अपने सुनहरे सपनों को लेकर
वापस ज़िन्दगी की ओर
मुड़ नहीं पाया ।

4 comments:

  1. वाह बहुत ही सुंदर पेशकश....यूँ ही लिखते रहिये.....दाद !!

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  2. बहुत शुक्रिया हर्ष जी।

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  3. वह अपने सुनहरे सपनों को लेकर
    वापस ज़िन्दगी की ओर
    मुड़ नहीं पाया ।
    बहुत खूब कहा है इन पंक्तियों में ।

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    1. बहुत बहुत शुक्रिया आपका संजय जी

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