कर्मों का लेखा जोखा
शारीर नहीं दे कहीं धोखा
सहारे वाले हाथ नहीं हैं
अब बच्चों व रिश्तेदारों की बारात नहीं है
अकेली सुबह है
खाली और काली संध्या है
सन्नाटे बन गए कान के बाले
लटक-लटक कर शोर करते हैं
आराम कुर्सी है हिलने वाली
कुर्सी स्थिर है हिल रहा शारीर
कितनी लाचारी और बेबसी
आँखें दूसरों से
आस और अपनापन मांगती सी
टूटती उम्मीद बुझती लौ
बिखरते सपने टूटे कांच से
एक - एक नश्तर चुभता दिल पे
प्राण रखे हैं बीच में दो सिल के
धीरे - धीरे सब कुछ घुटता जाता है
क्या खोया क्या पाया
कुछ भी समझ न आया
भारी मन, हाथ खाली है
चलो अब वृद्धावस्था की तैयारी है
शांत वन में सहारे वाली लकड़ी की ठक - ठक
लड़खड़ाते कदमों की धक - धक
बिन आंसू रोती आँखें
शून्य में खो जाती हैं
बचपन से जवानी, जवानी से बुढ़ापा
शान्त मन रहता, अब नहीं खोता आपा
जीवन की संध्या में कल के सूरज की आस नहीं है
अब तो बस वृद्धावस्था की तैयारी |
वाह मधुलिका जी एक बनाया देखने को मिला ब्लॉग बिलकुल मेरी तरह ही है.....यादों का सिलसिला तो कभी ख़त्म होता ही नहीं ..यूँ ही चलता रहे तो ही ठीक है ....कुछ अची और कुछ बुरी यादें का समावेश ह ज़िन्दगी है !!!
ReplyDeleteइत्तफाकन बलॉग की थीम एक समान हो गई । गूगल की रेडीमेड थीम जो है ।
Deleteकमेन्ट करने के लिए धन्यवाद ।
सुंदर अभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद आपका।
Deleteबहुत सुंदर अभिव्यक्ति .....
ReplyDeleteबहुत शुक्रिया नीरज जी।
Deleteवृद्ध अवस्था का जैसे केनवास सामने खड़ा कर दिया आपने ...
ReplyDeleteबहुत संवेदनशील और दिल को छूने वाली रचना है ...
प्रोत्साहन इंसान को और लिखने की प्रेरणा देता है। बहुत आभार दिगम्बर जी।
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