Thursday, 28 May 2015

मेरी आसमानी रगं की डायरी


तुम मेरी आसमानी रगं की डायरी के पन्नों में बसे हो
बिना बोले आ जाती है हवा
और जब हर पन्ने को खोलकर चली जाती है
तब यादों की खुशबू
मेरे चारों ओर फैल जाती है
और घटों मैं अपने आप से
बातें करने लगती हूँ
वो कमरे में तुम्हारे होने का अहसास
खिड़की पर रखे रजनीगंधा के फूल 
वो ख़त 
वो किताबों में रख़ी सूखी पख़ुडियाँ
उस कमरे की हवा 
मुझसे लिपट कर अतीत में ले जाने की कोशिश करती है
एक अजीब सी अकेलेपन की सिहरन
नसों में दौड़ जाती है
मुझे तुम्हारी सारी बातें याद हैं
इसलिए अब दौहराने
को कुछ बचा ही नहीं
मुझे पता है तुम कहीं नहीं हो 
पर तुम मेरी यादों में हो
तुम मेरी आसमानी रगं की
डायरी के पन्नों में बसे हो |

9 comments:

  1. मेरी रचना को शामिल करने का बहुत बहुत शुक्रिया आपका शास्त्री जी

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  2. बहुत सुन्दर

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    1. बहुत बहुत शुक्रिया आपका ओंकार जी

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  3. जब तक यादें हैं खुशबू है ... हवाएं हैं ...
    सच कहो तो जीवन भी तो तभी तक है ...

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  4. बहुत बहुत शुक्रिया आपका दिगम्बर जी

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  5. सुंदर भावाभिव्यक्ति

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  6. बहुत बहुत शुक्रिया आपका हिमकर जी

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  7. क्या बात है..एकदम अलग अंदाज़...बढ़िया आलेख और सुन्दर नज़्म

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    1. बहुत बहुत शुक्रिया आपका संजय जी

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