Tuesday, 2 June 2015

आँखों की नीलामी


कल बाज़ार में बड़ा शोर था
किस बात का हल्ला चारों ओर था
क्या किया तुम्ने ? 
मैने कहा - कल मैने अपनी आँखें
बड़े अच्छे दामों में बेच दी
ये मेरी हैसियत से ज़्यादा 
बड़े -बड़े सपने देखा करती थी
इस ज़माने में दाल - रोटी कमाने में 
हौसला परास्त हो जाता है
ये जब देखती है
रात का अंधकार काले साए
अबला नारी चीख पुकार 
अपहरण हत्या और अत्याचार
तब ये लाल हो जाती है
लहू के रगं सी 
इनके लाल होने से मैं बहुत डर जाता हूं
क्योंकि ज़ुबान बदं रखना और
मुट्ठी को भिचें रखना पड़ता है 
कसकर
वरना जुनून सवार हो जाता है
हर एक को आँखों के रंग में रंगने का
मैं कब से सोच रहा था 
की इनके लाल होने से पहले 
इनको बेच दूँगा
इसलिए मैने चुपचाप सौदा कर लिया
पर सौदा आखों का था न
इसलिए बड़ा शोर था 
अब नई आँखें हैं
पत्थरों की तरह 
न सपनें देखती न दुनिया की हलचल !


9 comments:

  1. बहुत बहुत शुक्रिया आपका शास्त्री जी

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  2. बहुत ख़ूब...वाकई आँखवाले बहुत कुछ देखकर भी अनदेखा कर देते हैं...

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  3. बहुत बहुत शुक्रिया आपका हिमकर जी

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  4. आज के हालात में आँखों का पत्थर हो जाना ही ठीक लगता है ... समाज की विवशता को बाखूबी उतरा है ..

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  5. बहुत बहुत शुक्रिया आपका दिगम्बर जी

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  6. आह!
    इस करुणा कलित ह्रदय में अब विकल रागिनी बजती......

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  7. कविता का विषय बदलना भी जरूरी होता है बहुत बहुत शुक्रिया आपका अभिषेक जी

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  8. वाह, बहुत खूब

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  9. शुक्रिया आपका ओंकार जी

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