Tuesday, 9 June 2015

ये पागल मन


मेरा रूप माँ बहन बेटी या गृहणि का रहता है
पर मेरा मन हर दिन नई कविता कह लेता है
शंखनाद हो जाता है
सुबह के सूरज की लालिमा से
उद्गम हो जाता है सरिता का
बहने लगते हैं शब्द कई
उन्हें मैं चुनती जाती हूँ
पहल करती हूँ ईश्वर की पूजा से
बच्चों की मासूमियत से
आँगन की रांगोली से 
सूखे आंटे में, अंगुलियाँ फिरा के
कई शब्द चुन लेती हूँ
फिर रोटी की पीठी में
शब्दों को गढ़ देती हूँ
दूसरे पहर आते -आते
मेरी कविता भी कुछ पल 
पड़ाव पर आकर विश्राम कर लेती है
ढलते सूरज के पल
घर लौटते पंछी 
शाम की आरती से
सभी अपनों का इंतज़ार खत्म होता है
अपनी जिम्मेदारी के लिबास को उतार कर 
धवल चाँदनी की खामोशी में
दिनभर के चुने हुए शब्दों से
कविता का अंतिम रूप सजता है
ये पागल मन ऐसे ही हर दिन 
नई कविता रचता है |

12 comments:

  1. नारी जो भी करती है वो सर्जन ही है हर पल ... एक कविता जो बुनती है हर रोज़ अपनों के लिए ...

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    1. बहुत बहुत शुक्रिया आपका दिगम्बर जी

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  2. बहुत सुन्दर रचना
    http://manojbijnori12.blogspot.in

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    1. बहुत बहुत शुक्रिया आपका मनोजकुमार जी

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  3. सुन्दर प्रस्तुति

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    1. बहुत बहुत शुक्रिया आपका ओंकार जी

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  4. तभी तो नारी को सृजन, सृष्टि और शक्ति का प्रतीक माना गया है...बहुत सुंदर भाव...

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  5. बहुत बहुत शुक्रिया आपका हिमकर जी

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  6. नारी किस तरह् अपनी जिंदगी में चीज़ों को पिरोती है यह दर्शाती हुई अति सुन्दर रचना

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  7. बहुत बहुत शुक्रिया आपका शिवराज जी

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  8. Replies
    1. बहुत बहुत शुक्रिया आपका .

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