Sunday 4 October 2020

पंक्तियाँ.. दिल से



 उसने पेपर पर 

और मैंने माँ के हाथ पर 

कर दिए दस्तखत 

और हमें मिल गयी 

अपने अपने हिस्से की दौलत 

~

हर दिन डरती थी 

तुम्हे खोने से 

पर अब देखो 

जब से तुम गए हो 

ये डर भी खामोशी से 

बिना बताये कहाँ चला गया

पता नहीं 

~

मेरी कब्र की मिट्टी 

आज कुछ नम है 

सुना है आज तू 

मेरी पसंद के 

रजनीगंधा के फूल 

लाने वाला था 

~

बहुत दिन के बाद 

मिल तो रहे हो 

पर मैं तुम्हारे जितना 

दौलतमंद नहीं 

कहीं ऐसा न हो 

चंद लम्हों के बाद 

तुम्हे कुछ 

ज़रूरी काम याद आ जाए 

Saturday 26 September 2020

ऐ ज़िंदगी ...

 

 कल बहुत देर तलक सोचती रही
फिर सोचा बात कर ही लूं  
फिर मैंने ज़िंदगी को फ़ोन लगाया 
मैंने कहा आओ बैठो किसी दिन 
दो चार बातें करते हैं 
एक एक कप गर्म चाय की प्याली
एक दूसरे को सर्व करते हैं 
हमेशा भागती रहती हो ज़रा जीने भी दो 
कुछ मेरी पसंद के दो चार दिन 
इतना तहलका मचा के रखती हो 
हमेशा घसीटती रहोगी क्या
मरे हुए कीड़े को जैसे चीटियाँ घसीटतीं है 
थोड़ा ठहरो  ज़िंदगी 
पर तुमने कहा सारी कायनात का 
मिज़ाज बदले एक अरसा हो गया है 
तुझे जीना है तो तू बहुत से मुखौटे
इन रंगीनियों से उठा ले  
झूठफ़रेबबेईमानीचालाकी 
तूने कहा यही सारी चीज़ें हैं
वक़्त से तालमेल बिठाने के लिए 
मैंने कहा कम्बख़्त तूने बताया ही नहीं 
बड़ा सामान लगता है तेरे सफ़र में 

Sunday 30 August 2020

कुछ पंक्तियाँ


~


 उसने पूछा ये ठहाके 

का राज़ क्या है 

आँखें खामोश थी 

गम को कहीं तो

ठहरना था 

आज हसी में ही सही 

~


उसकी निशानियां 

अब बंद पड़ी हैं मेरे पास 

वो संदूक तो जंग खा गया 

पर वो बेजान चीज़ें 

अब भी उतनी ही 

खूबसूरत हैं यादों की तरह 

सोचती हूँ काश कभी 

यादों को भी जंग लग जाए 

~


अपने शहर के रास्तों पर 

खड़े हो कर 

जब ये सोचना पड़ जाए 

की अब जाना कहाँ है 

तब ये अहसास होता है 

मेरा शहर अब 

मुझे भुलाने लगा है 

~


वो कलम मेरी बड़ी दुश्मन थी 

जब भी खत में तुझे 

तेरी शिकायत में उतारना चाहा 

अक्सर टूट जाया करती थी 


~


वो मज़दूर सब आलिशान आशियाने की 

छत मरम्मत कर आया 

पर अपने घर की छत से टपकते पानी ने 

उसे समझाया 

मौसम बदलने का इंतज़ार 

किया जा सकता है 

~

Saturday 15 August 2020

तुम्हारे शहर की बूँदें


 बारिश में जब भी तुम्हारे 

शहर गया 

न तो तुम दिखी 

न मुलाक़ात हुई 

पर बहुत सी बूँदें 

तुम्हारे शहर की 

छाते में सिमट कर आ गईं 

कई दिनों से 

वो यादों की सीलन 

महका रही थीं 

कमरे को 

उन्हें मिटाने के लिए 

आखिर मैंने

आज कड़ी धूप में 

छाता खोल कर सुखा दिया




Sunday 21 June 2020

सरहदों से तुम्हारा आना



सरहदों से तुम्हारा आना
पलाश के फूल की तरह 
वहीँ तो खिलते हैं 
उमीदों की तपती दोपहर में 
तुम आओगे तो न 
बहुत दिनों से कह तो रहे हो 
पर आने के तुम्हारे संदेशों में 
इंतज़ार मुझे हराता नहीं है 
वो ख़त्म होती ख़ुशी को 
रोज़ मैं 
खींच कर, खरोंच कर 
बचा कर 
जी रही हूँ 
फिक्रमंद ज़िन्दगी रोज़ मरती है 
और ये परेशानियों का अब्र 
चाहिए बहुत सारा सब्र 
बड़े शहरों के बड़े वादे 
और तू भी आने की बातों के 
फरेब में जीना सिखा दे 
पीली पत्तियाँ और ये पतझड़ 
इन्ही के बीच 
कहीं न कहीं 
नई कोपलें भी होंगी 
हर कोने में उदासी फ़ैल रही है 
तुम थोड़ा जल्दी आ जाना 
मैंने एक शोख रंग बचा रखा है
उसे हम ख़ुशी में घोल देंगे 
सच कहो तुम 
इंतज़ार की हद के 
गुजरने से पहले तो
आ जाओगे न 

Saturday 9 May 2020

गांव बहुत दूर है

कारखाने से मिली बची तन्खा 
को लेकर 
लौटते समय मन ने सोचा, 
शायद ही अब दोबारा जी पाऊं 
घर की देहलीज़ पर 
कांपते कदमों ने अपनी बेबसी सुना दी 
मेरा काम छूट गया 
हमें अब पैदल ही 
अपने गांव जाना होगा 
पसीने से तर हथेली ने 
नोटों को कस कर भींच लिया 
कोई छुड़ा न ले जाए 
मासूम गोल मटोल आँखों का सवाल 

"बाबा मेरे जूते तो
सूरज काका ने सिए ही नहीं "
मेरे दिमाग के दरवाज़े बंद हैं
सोचने को कुछ नहीं है 
मेरी झोली में, 
रघु का दूसरा सवाल 
"बाबा मुन्नी ने तो 
चलना ही नहीं सीखा "
मन ने कहा अगर आता तो भी क्या 
मंज़िल अब धुआं धुआं है.. 

कजरी ने बचे हुए सामान को 
फैक्ट्री के कबाड़ खाने में रखा
तो आंसू की दो बूँद ने 
सामान पर अपने हस्ताक्षर कर दिए 
वापस मिलने की उम्मीद पर
कजरी का सवाल
"रघु के बाबा, हम वर्षों से
गांव नहीं गए 
तुम्हे रास्ता याद तो है ना "
उसके दिमाग में 
काम गूँज रहा है 
मशीनें शोर कर रही है 
साहब ने कहा था 
"जिस रास्ते को तुम बना रहे हो 
वो सीधा तुम्हारे गांव को जाता है "
मैं बहुत खुश था 
मेरा गांव और मेरे गांव को जाने वाली सड़क.. 
पर आज जब चल कर 
उसी सड़क से लौट रहा हूँ 
मेरे पसीने की बूंदे 
जो गिरी थी कॉन्क्रीट पर.. 
चमक रही है 
मृगमरीचिका बन कर 
अब इस अनिशचिता वाले
जीवन में 
मैं सड़क के 
न इस छोर पर हूँ 
न उस छोर पर 
बस अपनों का हाथ थामें 
इस आवारगी और 
बंजारेपन में 
शायद ही दोबारा जी पाऊं 
मौत तुम आना मत 
पहले मैं गांव तो 
पहुँच जाऊं ..

Tuesday 10 March 2020

वो तलाश


वर्षो बाद बरसात की रात
अजब इत्तेफाक की बात
रात के पहर दस्तक
दरवाज़े पर था कोई रहवर
जैफ ने पनाह मांगी
मेरे घर के चरागों में
रौशनी बहुत कम थी
परफ्यूम की खुशबु जानी पहचानी थी
पर उसकी अवारगी और कुछ खोजती निगाहें.. 
मेज़ पर रखी काॅफी को
जब उसने झुक कर उठाया
रेनकोट के ऊपर वाले जेब में
मेरी तस्वीर जो बहुत पुरानी थी
जिस मोड़ को मैं छोड़ आई थी
बंद किए किस्से में वो दस्तक
नया हिस्सा जोड़ गई
वो कुछ नहीं बोला
और बारिश थमने के बाद
अलविदा कह कर चला गया
फिर से अजनबी बनने
पता नहीं अब बारिश कब होगी
काश मैं चुपके से 
जेब की तस्वीर बदल पाती
उसकी वो तलाश मुकम्मल हो जाती..