तुम्हें पहचानने की
पर दृष्टि धुँधलाती रही
याददाश्त के पृष्टों को
पर हम पहचान गए थे तुम्हें
तुम हमसे किसी मोड़ पर टकराए थे
सोचा होगा तुमने
कि अगली मंज़िल तक शायद ?
हम तुम्हारे कदमों के साथ
कदम मिला लेगें
पर रास्ते वीरान नहीं थे
रास्ते थे काफ़ी पथरीले
और नुकीले पत्थर
लगातार हमें चुभते रहे
तुम करते रहे अनुमान
कि हमारे और तुम्हारे कदम
साथ पड़ रहे हैं
हम सोचते ही रहे केवल
कि तुम्हें आवाज़ दें
जिसके हल्के या भारीपन से
तुम समझ लोगी हम कहाँ है
क्योकिं हम मंज़िल से दूर हो चले थे
और इसी कश्मकश में
समय के साथ तेजी से चलती
तुम्हारी ज़िंदगी
काफी आगे निकल चुकी थी
तुम तक पहुँच पाना
मेरे लिए
अपनी तमाम साधारणता के साथ
असंभव था लगभग
यादगार भर बन गई
उस दिन की यात्रा
सपनों के काँच महल
हक़ीक़त की पथरीली ज़मीन पर छोड़
ख़त्म कर दी
तुमने अपनी यात्रा |
सुन्दर कविता।
ReplyDeleteबहुत आभार आपका राजेश कुमार जी मेरी ब्लाग पढने और सराहने के लिए
Deleteसाथ न भी चल सके तो क्या ... कुछ यादें तो जुड़ गयीं ...
ReplyDeleteजिन्दगी बीत जाती है इनके सहारे ...
जी सही फरमाया आपने यादें ही है जो जीने का बहाना बना देती है. बहुत बहुत शुक्रिया आपका दिगम्बर जी मेरी कविता पढने और सराहने के लिए
ReplyDeleteनुकीले पथरीले रास्ते के चोटे यादों को स्थायी यादगार बना देते है | सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteजी हां यादों के बनने की भी बजह होती है जिंदगी में.. बहुत बहुत शुक्रिया आपका कालीपद जी मेरी कविता पढने और सराहने के लिए..
Deletekaafi acchi kavita hai
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया आप का reyaz
Deleteमधुलिका जी, बहुत सुन्दर और कोमल भावनाओं को बहुत ही खूबसूरत शब्दों में प्रस्तुत किया है आपने .... बेहतरीन रचना :))
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया आप का संजय जी |
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