Wednesday 24 June 2015

तुम्हारी पहचान


उस दिन बहुत कोशिश की हमने 
तुम्हें पहचानने की
पर दृष्टि धुँधलाती रही 
याददाश्त के पृष्टों को
पर हम पहचान गए थे तुम्हें 
तुम हमसे किसी मोड़ पर टकराए थे 
सोचा होगा तुमने 
कि अगली मंज़िल तक शायद ?
हम तुम्हारे कदमों के साथ 
कदम मिला लेगें
पर रास्ते वीरान नहीं थे 
रास्ते थे काफ़ी पथरीले
और नुकीले पत्थर 
लगातार हमें चुभते रहे 
तुम करते रहे अनुमान
कि हमारे और तुम्हारे कदम 
साथ पड़ रहे हैं
हम सोचते ही रहे केवल 
कि तुम्हें आवाज़ दें 
जिसके हल्के या भारीपन से 
तुम समझ लोगी हम कहाँ है
क्योकिं हम मंज़िल से दूर हो चले थे
और इसी कश्मकश में 
समय के साथ तेजी से चलती
तुम्हारी ज़िंदगी 
काफी आगे निकल चुकी थी 
तुम तक पहुँच पाना
मेरे लिए
अपनी तमाम साधारणता के साथ 
असंभव था लगभग 
यादगार भर बन गई 
उस दिन की यात्रा 
सपनों के काँच महल 
हक़ीक़त की पथरीली ज़मीन पर छोड़
ख़त्म कर दी 
तुमने अपनी यात्रा |

10 comments:

  1. सुन्दर कविता।

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    1. बहुत आभार आपका राजेश कुमार जी मेरी ब्लाग पढने और सराहने के लिए

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  2. साथ न भी चल सके तो क्या ... कुछ यादें तो जुड़ गयीं ...
    जिन्दगी बीत जाती है इनके सहारे ...

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  3. जी सही फरमाया आपने यादें ही है जो जीने का बहाना बना देती है. बहुत बहुत शुक्रिया आपका दिगम्बर जी मेरी कविता पढने और सराहने के लिए

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  4. नुकीले पथरीले रास्ते के चोटे यादों को स्थायी यादगार बना देते है | सुन्दर प्रस्तुति

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    1. जी हां यादों के बनने की भी बजह होती है जिंदगी में.. बहुत बहुत शुक्रिया आपका कालीपद जी मेरी कविता पढने और सराहने के लिए..

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    1. बहुत बहुत शुक्रिया आप का reyaz

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  6. मधुलिका जी, बहुत सुन्दर और कोमल भावनाओं को बहुत ही खूबसूरत शब्दों में प्रस्तुत किया है आपने .... बेहतरीन रचना :))

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    1. बहुत बहुत शुक्रिया आप का संजय जी |

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