Wednesday, 13 May 2015

जब दुख था नन्हा पौधा जीवन में


जब दुख था नन्हा पौधा जीवन में 
तब आँखे भर जाती थी बात बात में 

दिल पर लग जाती थी बाते हर रूप में 
तब दिमाग और दिल अलग अलग सोचते 
दिमाग बंद कमरे में था और 
दिल निकल पड़ा था अपनों की खोज में 
दिल नादान था 
बहुत ठोकरे खाता इस भाग दौड़ में 
कुछ नहीं मिला, सब से था उसे गिला 
कुंदन का मर्तबान पर, विष था भरा हुआ 
दिमाग ने दिआ उसे दिलासा 
कहना सुन मेरा ,कोई नहीं है तेरा 
अपनों से प्यार पाने की होड़ में 
लहू हो गए तेरे पैर ,अब पीछा छोड़
आंसू के सागर को सूख जाने दे 
दिमाग को बंद कमरे से बहार आने दे 
अपने दिमाग की सुन कर चल 
दिल से कह ,अब तू न बच्चों की तरह मचल 
दुनिया बहुत ख़राब है 
आसुँओ को बहाना नहीं, पीना सीख 
क्योंकि वही तो तेरे पास रखी शराब है 
इतना नशा है इसमें कि सबका दिया 
दुख डूब जाता है ,
नहीं आता फिर दिमाग होश में ।

4 comments:

  1. बहुत ही बेहतरीन रचना।

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    1. बहुत बहुत धन्यावाद |

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