तब आँखे भर जाती थी बात बात में
दिल पर लग जाती थी बाते हर रूप में
तब दिमाग और दिल अलग अलग सोचते
दिमाग बंद कमरे में था और
दिल निकल पड़ा था अपनों की खोज में
दिल नादान था
बहुत ठोकरे खाता इस भाग दौड़ में
कुछ नहीं मिला, सब से था उसे गिला
कुंदन का मर्तबान पर, विष था भरा हुआ
दिमाग ने दिआ उसे दिलासा
कहना सुन मेरा ,कोई नहीं है तेरा
अपनों से प्यार पाने की होड़ में
लहू हो गए तेरे पैर ,अब पीछा छोड़
आंसू के सागर को सूख जाने दे
दिमाग को बंद कमरे से बहार आने दे
अपने दिमाग की सुन कर चल
दिल से कह ,अब तू न बच्चों की तरह मचल
दुनिया बहुत ख़राब है
आसुँओ को बहाना नहीं, पीना सीख
क्योंकि वही तो तेरे पास रखी शराब है
इतना नशा है इसमें कि सबका दिया
दुख डूब जाता है ,
नहीं आता फिर दिमाग होश में ।
बहुत सुंदर ।
ReplyDeleteआपका शुक्रिया |
Deleteबहुत ही बेहतरीन रचना।
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यावाद |
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