Friday 22 May 2015

स्त्री


मैं स्त्री हूँ इसलिए मैं 
हर रिश्ते को काटती और बोती हूँ 
हर रिश्ते के रास्ते से मैं गुज़री हूँ 
हर रिश्ते को मैने जिया है
हर रिश्ते की कड़वाहट को मैंने पिया है
मैं एक स्त्री हूँ इसलिए मैंने 
फटे टूटे नए पुराने सभी रिश्ते सिए हैं 
सब रिश्तों को दम घुटने से बचाती हूँ
इसलिए पता नहीं मैं इस फेर में 
कितनी बार जीती और मर जाती हूँ 
कुछ रिश्ते ही सुख देते हैं 
बाकी सब तो घावों से दुख देते हैं 
पर मजबूरी सबको ढोना है
रिश्ते के ताने बांने का बिछौना है 
नीदं भले ना आए 
इसी पर हर स्त्री को सोना है |

20 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (24-05-2015) को "माँगकर सम्मान पाने का चलन देखा यहाँ" {चर्चा - 1985} पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

    ReplyDelete
    Replies
    1. शास्त्री जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया

      Delete
  2. बहुत सुंदर रचना ।

    टंकण से हुई गल्तियाँ ठीक कर लें पीया (पिया) ळिया (लिया) बिछौना आदि ।

    ReplyDelete
    Replies
    1. सूचित करने के लिए शुक्रिया आपका |

      Delete

  3. नीदं भले ना आए
    इसी पर हर स्त्री को सोना है |
    बहुर सुन्दर
    उत्तर दो हे सारथि !

    ReplyDelete
    Replies
    1. मेरी ब्लाग पढने और सराहने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया आपका

      Delete
  4. यथार्थपूर्ण सुन्दर रचना

    ReplyDelete
    Replies
    1. मेरी रचना पढने के लिये और प्रशंसा के लिए बहुत बहुत शुक्रिया

      Delete
  5. "
    मैं एक स्त्री हूँ इसलिए मैंने
    फटे टूटे नए पुराने सभी रिश्ते सिए हैं
    सब रिश्तों को दम घुटने से बचाती हूँ"


    बेहतरीन और उत्कृष्ट रचना !!

    ReplyDelete
    Replies
    1. मेरी ब्लाग पढने और सराहने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया आपका

      Delete
  6. सुन्दर… तकलीफ़देह है तो केवल ये मजबूरी का भाव।

    ReplyDelete
  7. शुक्रिया आपका रश्मि जी

    ReplyDelete
  8. बेहद सार्थक रचना। स्‍त्री सहनशीलता की मूरत होती है।

    ReplyDelete
  9. बहुत बहुत शुक्रिया आपका कहकशां जी

    ReplyDelete
  10. नारी मन के भाव लिखे हैं ... सच है रिश्तों को जितना नारी ढोती और भोगती है उतना पुरुष नहीं ...

    ReplyDelete
  11. बहुत बहुत शुक्रिया आपका दिगम्बर जी

    ReplyDelete
  12. मधुलिका जी आपकी इस रचना को हमने कविता मंच ब्लॉग पर स्थान दिया है

    संजय भास्कर

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत शुक्रिया संजय जी मेरी रचना कविता मंच पर शामिल करने के लिए । कृपया मुझे लिंक भी दीजिये वेबसाइट का । धन्यवाद ।

      Delete
  13. मधुलिका जी कविता मंच ब्लॉग का लिंक

    संजय भास्कर
    http://kavita-manch.blogspot.in

    ReplyDelete
  14. बहुत बहुत आभार.

    ReplyDelete