ज़िंदगी का कैनवास
अचानक से सारे रंग छलक गए
वो मेरे सूर्तेहाल और मुसतकबिल को
पूरा का पूरा भिगो गए
अब नया कैनवास है
उसके लिए नहीं बचा कोइ रंग
नया कैनवास मेरे वजूद की
पहचान बन गया है
डर लगता है
रंगो को छूने में, क्योंकि?
छलके थे जब सारे रंग
मिलकर बन गए थे स्याह रंग
जिससे बनती है ख़ौफ़नाक तस्वीर
जिससे लिखी जाती है
एक अपमान वाली भाषा
जिससे बनती है भयानक आँखें
जो बंद दरवाजे के बाद भी घूरती रहती है
उस कैनवास में अब
बिना रंगो वाली तस्वीर बन गई है
जिसमें नजर आते है
हिरास, बदर्जए-मजबूरी, बदरौनक और हिज्र
उस कैनवास को स्याह रंगों से बचा कर रखना
बमुशिकल है ।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (01-08-2015) को "गुरुओं को कृतज्ञभाव से प्रणाम" {चर्चा अंक-2054} पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
गुरू पूर्णिमा तथा मुंशी प्रेमचन्द की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बहुत शुक्रिया आप का शास्त्री जी मेरी रचना को चर्चा मंच में शामिल करने का ।
Deleteबेहद खूबसूरत रचना।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका राजेश कुमार जी ।
Deleteएक सा रंग जीवन में कभी नहीं रहता
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर
बहुत बहुत आभार आपका कविता जी ।
Deletebahut baarik, marmsparshi, hridaygraahi rachna, shubhkamnayein aapko!
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया आपका नवीन कुमार जी
ReplyDeleteइन्ही रंगों से दुबारा नए रंग निकलते हैं ... अलग अलग रंगों से जी जीवन बनता है ...
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया आपका दिगम्बर जी
Deleteसुंदर अभिव्यक्ति !
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया आपका सुशील कुमार जी.
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