सपने हजारों हैं अपनों के प्यार में
सुबह मंदिर की प्रार्थना में
औरों का दुख दर्द
मांगती अपने हिस्से में
सबको खिलाने के बाद
आधे पेट खाने से ही हो जाती तृप्त
तुम्हारा पसीना है टपकता
सारा आशियाना है चमकता
रसोइ का धुअाँ बहुत गहरा
तुम्हारा अस्तित्व नहीं कुछ कह रहा
घर के अंदर से बाहर तक
उसी के कंधे पर है टिकी
घर की एक -एक मंयार
तुम खो गई उस घर में
पर जब घर के द्वार पर दस्तक होती है
हर कोइ पूछता है
दरवाज़े पर लगी नेम-प्लेट वाले शख्स को
तुम्हारा नाम उस घर में कहीं गुम गया है
तुम्हें तो रिश्ते आपना नाम दे चुके हैं
पत्नी, बहू, माँ और भाभी का
कब वक्त आएगा कि लिखा हो
घर के बाहर तुम्हारी पहचान के साथ
तुम्हारा प्यारा सा नाम
मधुलिका जी बेशक बहुत ही मर्म लिए भाव समझें तो बहुत न समझें तो कुछ भी नहीं....किस किस के बारे में सोचूँ...आवश्य अपना स्थान पाने को आतुर एक अतुल्य 'नारी' !!
ReplyDeleteदाद !!!
बहुत बहुत शुक्रिया हर्ष जी मेरी रचना को पढ़ने और सराहने के लिए.
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (26-06-2015) को "व्यापम और डीमेट घोटाले का डरावना सच" {चर्चा अंक-2048} पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बहुत शुक्रिया आपका शास्त्री जी मेरी रचना को चर्चा मंच मे शामिल करने के लिए.
ReplyDeleteनिस्वार्थ ही करती रहती है नारी सब कुछ ... पर उसको न्याय मोइना जरूरी है ... उसको पहचान मिलना जरूरी है ...
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया आप का दिगम्बर जी मेरी रचना को पढ़ने और सराहने का ।
Deleteसुंदर भावाभिव्यक्ति
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया आपका हिमकर जी..
Deletesundar
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया मदन मोहन जी..
Deleteसुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया आप का ओंकार जी ।
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