आकार भले ही समान हो
प्रकार है लेकिन भिन्न
कंकड़ मैं बदसूरत
न चमक न कोई रंग ढंग का
मोती तुम सफ़ेद झक्क
है चमक और है ख्याती तुम्हारे अंग का
कंकड़ मैं नाकारा सा
कही भी मिल जाऊं मुंह उठाकर
मोती तुम उत्कृष्ठ सी
रख ले हर कोई अंगुल या कंठ में
मालाओं में पिरोकर, सजाकर
कंकड़ मैं कठोर सा
मरा हुआ, निर्जीव
पैरो में लोगो के तले पड़ा हुआ
मोती तुम मर्म सी
प्रिय हो लोगो को
अस्तित्व है, तुम्हारा
लोगो की उंगलियो में जड़ा हुआ
है कैसे संभव मेल
एक कंकड़ का एक मोती से
तुम रईसों की ठाठ हो
और मैं बच्चों का खेल
- मुदित श्रीवास्तव
<a href="http://www.manojbijnori12.blogspot.in>डायनामिक</a> पर आपका स्वागत है !
ReplyDeleteसुन्दर रचना !
डायनामिक पर आपका स्वागत है !
ReplyDeleteसुन्दर रचना !
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज बृहस्रपतिवार (09-07-2015) को "माय चॉइस-सखी सी लगने लगी हो.." (चर्चा अंक-2031) (चर्चा अंक- 2031) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
बच्चों का खेल बन के बच्चों जैसे रह जाएँ ... इतन ही काफी है ... मोती बन के ख़ास तो हो जाता है इंसान पर लटका रहता है गर्दन से ...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ...........
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