Thursday, 24 September 2015

जीवन का मतलब


धीरे -धीरे जिंदगी से शिकायतों की गठरी भर ली 
उस गठरी से बहुत कुछ अच्छा
पीछे छूटकार बिख़रता गया
जिसे न बटोर पाए न वक्त से देख़ा गया 
अब जिंदगी बेतरतीबि से रख़े सामान की तरह हो गई है
मन करता है की काश?
जिंदगी रेशम पर पड़ी सिल्वटों सी होती 
मुट्ठी भर पानी के छीटें मारते 
प्रेस करते और नए सिरे से जीते 
या जिंदगी की इबारत 
कच्ची स्याही से लिखी होती 
अगर बारिश में भीग चुकी होती 
नए सफ़े से फ़िर शुरू होती
पर नहीं कुछ बदल पाते 
उन्ही सिलवटों में बाहर निकलने
का रास्ता ढूंढ़ते 
पक्की स्याही का रंग नहीं धुलता 
इसलिए जीवन में रंग सजाने की
कोशिश जारी रख़ते 
फ़िर से जीने की तमन्ना में
तमाम रातें मौत को गले मिलने का न्यौता देकर
धोख़े से रास्ता बदल लेते हैं
क्या करे सिलवटों और फ़ैली स्याही में 
जीने की आदत जो बरसों से पड़ी है
क्या इंसान वाकई जीवन का मतलब
सारी ज़िंदगी समझ नहीं पाते 

25 comments:

  1. वाह !! खूबसूरत रचना।

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत बहुत शुक्रिया आप का राजेश जी ।

      Delete
  2. वाह !! खूबसूरत रचना।

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत बहुत शुक्रिया आप का राजेश कुमार जी ।

      Delete
  3. जिंदगी का सजीव चित्रण है, अत्यंत प्रभावी शब्द संयोजन

    ReplyDelete
  4. जिंदगी का सजीव चित्रण है, अत्यंत प्रभावी शब्द संयोजन

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत बहुत शुक्रिया आप का मालती जी ।

      Delete
  5. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (26-09-2015) को "सवेरा हो गया-गणपति बप्पा मोरिया" (चर्चा अंक-2110) (चर्चा अंक-2109) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत बहुत आभार आपका शास्त्री जी । मेरी रचना को चर्चा मंच में स्थान देने का । तहे दिल से शुक्रिया ।

      Delete
  6. सुंदर प्रस्तुति

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत बहुत आभार आपका ओंकार जी ।

      Delete

  7. मन करता है की काश?
    जिंदगी रेशम पर पड़ी सिल्वटों सी होती
    मुट्ठी भर पानी के छीटें मारते
    प्रेस करते और नए सिरे से जीते ----- अदभुत

    जीवन के अनकहे सच को उजागर करती बेहद उम्दा रचना ---
    सादर


    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत बहुत शुक्रिया आप का ज्योति खरे जी ।

      Delete
  8. शुभ प्रभात
    बहुत दिनों के बाद अच्छी रचना पढ़ने को मिली
    बधाई सुंदर सृजन के लिए

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत बहुत शुक्रिया आप का विभा रानी जी मेरी रचना को पढने और सराहने का ।

      Delete
  9. हर कोई जीने की परिभाषा अपने अनुसार बुनता जाता है .. जीता जाता है ...
    अगर मानो तो जिंदगी कुछ ऐसी हो भी सकती है सिलवटों जैसी जो आसानी से प्रेस हो सके ...

    ReplyDelete
    Replies
    1. शुक्रिया आप का दिगम्बर जी मेरी रचना को पढने का ।

      Delete
  10. बहुत सुंदर रचना, ज़िंदगी का सही अर्थ कौन समझा है भला, सब अपने अनुभवों के हिसाब से परिभाषित करते हैं।

    ReplyDelete
  11. बहुत बहुत शुक्रिया आप का मेरी रचना को पढने और सराहने का ।

    ReplyDelete
  12. हम अनावश्यक कर्मों से अपनी गठरी का बोझ बढाते रहते हैं और स्वयं ही जीवन यात्रा को कठिन बना लेते हैं...बहुत सुन्दर और सटीक चिंतन...

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत बहुत शुक्रिया आपका कैलाश शर्मा जी

      Delete
  13. सुंदर चिंतन. ये मतलब समझते समझाते उम्र गुजर जाती है.

    ReplyDelete
  14. बहुत बहुत शुक्रिया आपका रचना जी

    ReplyDelete
  15. Replies
    1. बहुत बहुत शुक्रिया आप का संजय जी ।

      Delete