उस गठरी से बहुत कुछ अच्छा
पीछे छूटकार बिख़रता गया
जिसे न बटोर पाए न वक्त से देख़ा गया
अब जिंदगी बेतरतीबि से रख़े सामान की तरह हो गई है
मन करता है की काश?
जिंदगी रेशम पर पड़ी सिल्वटों सी होती
मुट्ठी भर पानी के छीटें मारते
प्रेस करते और नए सिरे से जीते
या जिंदगी की इबारत
कच्ची स्याही से लिखी होती
अगर बारिश में भीग चुकी होती
नए सफ़े से फ़िर शुरू होती
पर नहीं कुछ बदल पाते
उन्ही सिलवटों में बाहर निकलने
का रास्ता ढूंढ़ते
पक्की स्याही का रंग नहीं धुलता
इसलिए जीवन में रंग सजाने की
कोशिश जारी रख़ते
फ़िर से जीने की तमन्ना में
तमाम रातें मौत को गले मिलने का न्यौता देकर
धोख़े से रास्ता बदल लेते हैं
क्या करे सिलवटों और फ़ैली स्याही में
जीने की आदत जो बरसों से पड़ी है
क्या इंसान वाकई जीवन का मतलब
सारी ज़िंदगी समझ नहीं पाते
वाह !! खूबसूरत रचना।
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया आप का राजेश जी ।
Deleteवाह !! खूबसूरत रचना।
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया आप का राजेश कुमार जी ।
Deleteजिंदगी का सजीव चित्रण है, अत्यंत प्रभावी शब्द संयोजन
ReplyDeleteजिंदगी का सजीव चित्रण है, अत्यंत प्रभावी शब्द संयोजन
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया आप का मालती जी ।
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (26-09-2015) को "सवेरा हो गया-गणपति बप्पा मोरिया" (चर्चा अंक-2110) (चर्चा अंक-2109) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बहुत आभार आपका शास्त्री जी । मेरी रचना को चर्चा मंच में स्थान देने का । तहे दिल से शुक्रिया ।
Deleteसुंदर प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका ओंकार जी ।
Delete
ReplyDeleteमन करता है की काश?
जिंदगी रेशम पर पड़ी सिल्वटों सी होती
मुट्ठी भर पानी के छीटें मारते
प्रेस करते और नए सिरे से जीते ----- अदभुत
जीवन के अनकहे सच को उजागर करती बेहद उम्दा रचना ---
सादर
बहुत बहुत शुक्रिया आप का ज्योति खरे जी ।
Deleteशुभ प्रभात
ReplyDeleteबहुत दिनों के बाद अच्छी रचना पढ़ने को मिली
बधाई सुंदर सृजन के लिए
बहुत बहुत शुक्रिया आप का विभा रानी जी मेरी रचना को पढने और सराहने का ।
Deleteहर कोई जीने की परिभाषा अपने अनुसार बुनता जाता है .. जीता जाता है ...
ReplyDeleteअगर मानो तो जिंदगी कुछ ऐसी हो भी सकती है सिलवटों जैसी जो आसानी से प्रेस हो सके ...
शुक्रिया आप का दिगम्बर जी मेरी रचना को पढने का ।
Deleteबहुत सुंदर रचना, ज़िंदगी का सही अर्थ कौन समझा है भला, सब अपने अनुभवों के हिसाब से परिभाषित करते हैं।
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया आप का मेरी रचना को पढने और सराहने का ।
ReplyDeleteहम अनावश्यक कर्मों से अपनी गठरी का बोझ बढाते रहते हैं और स्वयं ही जीवन यात्रा को कठिन बना लेते हैं...बहुत सुन्दर और सटीक चिंतन...
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया आपका कैलाश शर्मा जी
Deleteसुंदर चिंतन. ये मतलब समझते समझाते उम्र गुजर जाती है.
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया आपका रचना जी
ReplyDeleteसजीव चित्रण
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया आप का संजय जी ।
Delete