मिट्टी में मिलने के बाद
ये काया धीरे-धीरे
मिट्टी हो जाया करती है।
उसे कोई चाह कर भी
नहीं रोक पाता
पर मिट्टी में मिलने के बाद
जो हम में बसता रहता है।
सालों साल वो अहंकार
पर्वत सा
वो प्रतिस्पर्धा ज्वाला सी
वो नफ़रत पत्थरों सी
वो जिजीविषा सौ बरस जीने की
वो माया जाल ना टूटने वाले
ताने बाने का
इन बीहड़ों में उलझी हुई आत्मा
इन सारे मिट्टी के टीलों को
जिन्होंने बहुत पहले मिट्टी
हो जाना चाहिए था।
ये आत्मा के साथ
आत्मसात् हो जाते हैं।
ना होते तो फिर
इनके जीवित
रहने से
मिट्टी को भी
मिट्टी बन्ने में
वक्त लगेगा।
सही कहा आपने पंचभूत तत्वों में मिल कर यह काया और इससे जुड़े गुण अवगुण सब मिट्टी में मिल जाने हैं ।गहन सृजन ।
ReplyDeleteआदरणीया तहेदिल से शुक्रिया आपका ।
Deleteठीक कहा आपने।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteसरल सहज शब्दों में गहन अर्थों को समेटती एक खूबसूरत और भाव प्रवण रचना.....
ReplyDeleteआदरणीय सर तहेदिल से शुक्रिया आपका ।
Deleteअच्छी कविता
ReplyDeleteगहन्तम भाव समेटे सुंदर रचना ।
ReplyDeleteआदरणीया तहेदिल से शुक्रिया आपका ।
Deleteआत्मा से विलग कहाँ है मानवीय गुण या अवगुण।
ReplyDeleteतन माटी भले ही हो जाये पर आत्मा के अमरत्व के गान में मुक्ति की प्रार्थना होती है।
गूढ़ भाव उकेरे हैं आपने।
सुंदर अभिव्यक्ति।
सादर।
आदरणीया तहेदिल से शुक्रिया आपका
Deleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteआदरणीया तहेदिल से शुक्रिया आपका
Deleteआदरणीय सर तहेदिल से शुक्रिया आपका
ReplyDeleteअति उत्तम
ReplyDeleteआदरणीय सर तहेदिल से शुक्रिया आपका
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