~ 1 ~
उस मोड़ का वो ढ़लान
जहाँ मेरा रास्ता अलग हो जाता था
उसकी गवाह वो
गुलमोहर और नीम की
बंटी हुई छांव
~2~
जीवन की जंग में
रोज़ मैं अपने
हथियारों को तराशती हूँ
पर दुनियाँ से
जब रूबरू होती हूँ
तो पाती हूँ
अभी और धार बाकि है
~ 3 ~
कर्मों की कश्ती
न जाने किस दरख्त
को काट कर बनाई जाती है
एक खासियत बड़ी अच्छी है
इसमें, कि एक दिन
हमारे पास वापस लौट कर
ज़रूर आती है
~ 4 ~
बहुत सी यादें थी
कुछ सुलझी
कुछ उल्झी
उनमें से चुनना मुश्किल था
फिर मैंने एक फैसला लिया
उन्हें वक्त पे छोड़ दिया
और फिर जिरह चलती रही
तारीखें बदलती रही
~ 5 ~
उसने सर्द अल्फ़ाज़ों
से कहा
ज़िन्दगी भी रात की तरह है
चांदनी सी चमक बहुत है
चारो तरफ
पर किस्मत का हर सितारा
टूटा हुआ है
~ 6 ~
इस शहर की सर्द हवाएं
मुझसे होकर गुज़री
कुछ तुझसे
हवाओं की गुफ्तगू
ने हौले से फ़रमाया
हम एक ही शहर में हैं
~ 7 ~
एक उलझी हुई
उदास होती शाम
कुछ खाली प्याले
कुछ आधे भरे हुए
कांच कुछ टूटे
बिखरे हुए
पर इन सबसे
जुड़ी हुई
एक कहानी
शायद सुनी किसी ने नहीं
पर अनकही
भी तो रही नहीं
बहुत बहुत सुन्दर
ReplyDeleteतहेदिल से शुक्रिया आपका आदरणीय.
Deleteबहुत बहुत शुक्रिया आपका आदरणीय मेरी रचना को चर्चा अंक में स्थान देने पर.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर सृजन ।
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया आपका आदरणीया
Deleteशानदार लघु रचनाएं! सभी क्षणिकाएं सार्थक भाव समेटे सुंदर अभिनव।
ReplyDeleteसस्नेह।
बहुत बहुत शुक्रिया आपका आदरणीय
Deleteलाजवाब सृजन
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया आपका आदरणीय,
Deleteबेहतरीन क्षणिकाएँ ।
ReplyDeleteतहेदिल से शुक्रिया आपका आदरणीया
Deleteसुन्दर सृजन
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया आपका आदरणीय
Deleteबेहतरीन दर्शन।
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया आपका आदरणीय,
Deleteवाह बेहतरीन गहराई से निकली मन को गहरे तक छूती प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया आपका आदरणीय संजय जी
Deleteमैंने इनमें से प्रत्येक रचना को बहुत ध्यान से पढ़ा भी, गुना भी। अंततः यही पाया कि मेरे लिए इन्हें अनुभूत कर लेना ही पर्याप्त है। और जो बात हृदय के तल पर जाकर स्थिर हो जाए, उस पर भला क्या टिप्पणी की जा सकती है?
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका आदरणीय ।
Deleteमधूलिका जी आपकी सारी क्षणिकाएं पढ़ी , महसूस कीं . अभिभूत हूँ . अब तक आपसे अपरिचित क्यों रही भला ..
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका आदरणीया
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