इनके अन्दर छिपी हुई
सिसकियाँ , हिचकियाँ
बहुत धीमे धीमे घुटती आवाज़
कानों में उड़ेल जाती हैं
ढेर सारा गर्म लावा
वो स्लो पॉयजन
फैलता जाता है
दिमाग की नसों में
और वहाँ जा कर
कोलाहल बन जाता है
मैं भागती रहती हूँ
शान्ति की तलाश में
कभी कभी छुपने की
जगह तलाशती हूँ
जहाँ कभी तुम होते थे
तुम्हारे पीछे छुपने पर
वो मसाले वाले हाथ
तुम्हारी उजली शर्ट का
मेरे मसाले वाले हाथों से
ख़राब होने का मलाल
तुम्हारे चेहरे पर
साफ़ नज़र आता था
तुम्हारे पीछे छुपने पर भी
दोनों बच्चे मुझे ढूढ़ कर
जोर से खिलखिला देते थे
वो छुपने का खेल कितना
मासूम हुआ करता था
अब तो अपने आप से
अपने आप को छुपा लूं तो सही
ये आँखों की नमी
अब बोलती नहीं
ये खामोशियाँ और
इनके अन्दर छुपी हुई
सिसकियाँ , हिचकियाँ
सुन्दर रचना
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका ओकार जी ।
Deleteबहुत बहुत आभार आपका शास्त्री जी मेरी रचना को चर्चा मंच मे स्थान देने पर ।
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 14 जून 2017 को लिंक की गई है.................. http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteतहेदिल से आभार आपका मेरी रचना को पांच लिंकों का आनंद मे शामिल करने पर ।
ReplyDeleteज़िंदगी के खूबसूरत एहसास हमेशा पीछा करते हैं । तसल्ली भी देते है । खूबसूरत रचना ।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका मेरी ब्लॉग पर आने का ।
Deleteज़िंदगी के खूबसूरत एहसास हमेशा पीछा करते हैं । तसल्ली भी देते है । खूबसूरत रचना ।
ReplyDeleteतहे दिल आभार आप का राजेश कुमार जी .मेरी ब्लॉग पर आने का ।
Deleteबहुत ही सुन्दर... मार्मिक...
ReplyDeleteलाजवाब प्रस्तुति...
बहुत बहुत आभार आप का मेरी ब्लॉग पर आने का ।
Deleteजब किसी के पीछे छुपने की जगह खो जाती है, तब ही खुद को खुद से छुपाने की जरूरत पड़ती है...
ReplyDeleteमर्मस्पर्शी रचना
बहुत बहुत आभार आप का मेरी ब्लॉग पर आने का ।
Deleteअतिमार्मिक रचना सुन्दर ! आभार "एकलव्य"
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका मेरी ब्लॉग पर आने का
Deleteखामोशी भी कई बार पुराने एहसास लौटा लाती है ... कुछ पल के लिए ही सही ...कई बार टीस ही रह जाती है ...
ReplyDeleteआप की सराहना के बाद में अपनी रचना को एक नए मुकाम पर हासिल होते हुए पाती हूँ ।शुक्रिया आप का सर ।
ReplyDelete