Friday, 16 June 2017

वो होली


वो खाकी शर्ट पर 
अब भी निशाँ होंगे 
पिछली होली के
वो अबीर का गुब्बार 
रंग कर चला गया था तुम्हे 
रंगो का इंद्रधनुष बिखेर गया था ख़ुशी 
गुलाल का रंग 
दहकते गालों में 
खो गया था 
तुम्हे रंगों की पहचान जो 
गहराइयों से थी 
अब के बरस 
बहुत सारा पानी भर था 
रंग नहीं 
वो तुम्हारी बातें 
झील सी आँखें
 रंग सारे तुम ले गए 
बस मेरे हिस्से का 
खारा पानी झीलों में
छोड़ गए 
वो शर्ट वो रंग के निशः 
वो होली 
बस गालों को भिगो गया 
खारा पानी 

12 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (18-06-2017) को गला-काट प्रतियोगिता, प्रतियोगी बस एक | चर्चा अंक-2646 पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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    1. तहेदिल से आभार आप का मेरी रचना को चर्चा अंक मे शामिल करने का ।

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  2. सुन्दर प्रस्तुति

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    1. बहुत बहुत शुक्रियाआप का ओंकार जी ।

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  3. वाह
    बहुत सुंदर

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    1. बहुत बहुत शुक्रिया आप का ज्योति खरे जी ।

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  4. भावभीनी कविता..

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    1. बहुत बहुत आभार आपका अनीता जी ।

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  5. भावपूर्ण अभव्यक्ति।

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    1. बहुत बहुत आभार आप का ज्योति जी ।

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  6. पानी के बेरंग रंगों में प्रेम के रंग मिल जाएँ तो सुनहरे हो जाते हैं एहसास ... जुदाई का एहसास भी तो गहरा रंग लिए होता है ...

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  7. आप की सराहना के बाद मैं अपनी रचना को एक नऐ मुकाम पर हासिल होते हुए पाती हूँ ।शुक्रिया सर आपका ।

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