वो खाकी शर्ट पर
अब भी निशाँ होंगे
पिछली होली के
वो अबीर का गुब्बार
रंग कर चला गया था तुम्हे
रंगो का इंद्रधनुष बिखेर गया था ख़ुशी
गुलाल का रंग
दहकते गालों में
खो गया था
तुम्हे रंगों की पहचान जो
गहराइयों से थी
अब के बरस
बहुत सारा पानी भर था
रंग नहीं
वो तुम्हारी बातें
झील सी आँखें
रंग सारे तुम ले गए
बस मेरे हिस्से का
खारा पानी झीलों में
छोड़ गए
वो शर्ट वो रंग के निशः
वो होली
बस गालों को भिगो गया
खारा पानी
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (18-06-2017) को गला-काट प्रतियोगिता, प्रतियोगी बस एक | चर्चा अंक-2646 पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
तहेदिल से आभार आप का मेरी रचना को चर्चा अंक मे शामिल करने का ।
Deleteसुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रियाआप का ओंकार जी ।
Deleteवाह
ReplyDeleteबहुत सुंदर
बहुत बहुत शुक्रिया आप का ज्योति खरे जी ।
Deleteभावभीनी कविता..
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका अनीता जी ।
Deleteभावपूर्ण अभव्यक्ति।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आप का ज्योति जी ।
Deleteपानी के बेरंग रंगों में प्रेम के रंग मिल जाएँ तो सुनहरे हो जाते हैं एहसास ... जुदाई का एहसास भी तो गहरा रंग लिए होता है ...
ReplyDeleteआप की सराहना के बाद मैं अपनी रचना को एक नऐ मुकाम पर हासिल होते हुए पाती हूँ ।शुक्रिया सर आपका ।
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