वो शाम मैं भूलना चाहता हूँ
वो पगडंडियाँ जो जाती थी
तुम्हारे घर की ओर
हर शाम गायों के लौटने की
पदचाप, उनके गले की घंटियाँ
धूल उड़ाती झुण्ड में
निकल जाती थी
तभी चराग रोशन
करने की वेला
उस मद्धिम दिए
की रौशनी में
तुम्हारा दूधिया चेहरा
धूल के गुबार में से
कुछ धुंधला
पर नज़र तोह आता था
मुझे तुम्हारे राह देखने का
यह तरीक़ा बड़ा
मन को भाता था
पर इस बारिश ने
सब पर सीलन डाल दी थी
तीलियाँ नहीं जली तो
रौशनी भी नहीं बिखरी
रात नदी का पानी
इतना क्यों हुआ खफा
की मुझे मुँह चिढ़ा गया
नदी सब कुछ बहा ले गयी
मेरा ईंट पत्थरों का मकान
तुम्हारा स्नेह के तिनकों से बना घर
अमीरी और गरीबी
पर नदी बोली क्यों नहीं
वो ख़ामोशी से
तुम्हे साथ ले गयी
आखिरी बार
तुम्हारे चेहरे को
देखने की ख्वाइश
मन में रह गयी . . .
समय की मार के आगे किसी का बस नहीं चलता ...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना
बहुत बहुत आभार आपका कविता जी ।
Deleteवो नदी क्या बोलती... जो खुद कभी ठहर न सकी... विडंबनाओं के शरीर नहीं होते
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका अलकनंदा जी ।
Deleteसुन्दर रचना ।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका सुशील कुमार जी. ।
Deleteसमय बहुत बलवान होता है .... नदिया की धरा के आगे टिकना मुश्किल हो जाता है ... रह जाती हैं बस यादें ...
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका दिगम्बर जी ।
Deleteबहुत ही खूबसूरत प्रस्तुति।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका राजेश कुमार जी ।
Deleteबहुत बहुत आभार आपका ।
ReplyDeleteवो नदी बोलती क्यों नहीं। बहुत ही सुंदर रचना के रूप में प्रस्तुत हुई है। बेहद पसंद आई।
ReplyDeleteतहे दिल से आभार आपका जमशेद जी ।
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