Thursday, 22 December 2016

वो नदी बोली क्यों नहीं


वो शाम मैं भूलना चाहता हूँ
वो पगडंडियाँ जो जाती थी 
तुम्हारे घर की ओर
हर शाम गायों के लौटने की 
पदचाप, उनके गले की घंटियाँ
धूल उड़ाती झुण्ड में 
निकल जाती थी 
तभी चराग रोशन
करने की वेला 
उस मद्धिम दिए 
की रौशनी में 
तुम्हारा दूधिया चेहरा 
धूल के गुबार में से 
कुछ धुंधला
पर नज़र तोह आता था 
मुझे तुम्हारे राह देखने का
यह तरीक़ा बड़ा 
मन को भाता था 
पर इस बारिश ने
सब पर सीलन डाल दी थी 
तीलियाँ नहीं जली तो
रौशनी भी नहीं बिखरी 
रात नदी का पानी 
इतना क्यों हुआ खफा 
की मुझे मुँह चिढ़ा गया 
नदी सब कुछ बहा ले गयी 
मेरा ईंट पत्थरों का मकान 
तुम्हारा स्नेह के तिनकों से बना घर 
अमीरी और गरीबी 
पर नदी बोली क्यों नहीं 
वो ख़ामोशी से 
तुम्हे साथ ले गयी 
आखिरी बार 
तुम्हारे चेहरे को 
देखने की ख्वाइश 
मन में रह गयी . . .

13 comments:

  1. समय की मार के आगे किसी का बस नहीं चलता ...
    बहुत सुन्दर रचना

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    1. बहुत बहुत आभार आपका कविता जी ।

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  2. वो नदी क्‍या बोलती... जो खुद कभी ठहर न सकी... विडंबनाओं के शरीर नहीं होते

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    1. बहुत बहुत आभार आपका अलकनंदा जी ।

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  3. Replies
    1. बहुत बहुत आभार आपका सुशील कुमार जी. ।

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  4. समय बहुत बलवान होता है .... नदिया की धरा के आगे टिकना मुश्किल हो जाता है ... रह जाती हैं बस यादें ...

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    1. बहुत बहुत आभार आपका दिगम्बर जी ।

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  5. बहुत ही खूबसूरत प्रस्तुति।

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    1. बहुत बहुत आभार आपका राजेश कुमार जी ।

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  6. बहुत बहुत आभार आपका ।

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  7. वो नदी बोलती क्यों नहीं। बहुत ही सुंदर रचना के रूप में प्रस्तुत हुई है। बेहद पसंद आई।

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    1. तहे दिल से आभार आपका जमशेद जी ।

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