Wednesday 6 April 2016

रोटी


ऊँचा पद बढ़ता रौब
कुर्सी का रुतबा
अधिनस्तोकी फ़ौज
जोड़ते हाथ विनती के
घुटता दम मरता स्वाभिमान
आस और उम्मीद
किस चीज की
पेट की आग बुझाने वाली
बरसात रोटी और पैसा
बहुत नीचे खड़ा है वो
पता नहीं दिखेगा भी की नहीं
उसकी विनती और लाचारी वाला कद
बहुत ही न्यून है
कुर्सी से उसे उम्मीद बहुत है
दोनों हाथो को जोड़ते वक्त
अपने स्वाभिमान को
पैरो तले रौंदता हुआ पाता है
सब कुछ समेट लेता है
गाँव परिवार झोपड़ी
जिम्मेदारी बीमारी
उन्हीं दो हाथों में उसकी विनती के अंदर
चार पैसों की आस वाली नौकरी
कुर्सी की आँखें बहुत घाघ हैं
वो देखना चाहती हैं की कितना कुछ खून
निचोड़ा जा सकता है
चंद पैसों के बदले 

10 comments:

  1. निःसन्देह अच्छी और संवेदनशील कविता बधाई

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    1. बहुत बहुत शुक्रिया आपका महेश जी मेरी रचना को पढने और सराहने का

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (08-04-2016) को "नैनीताल के ईर्द-गिर्द भी काफी कुछ है देखने के लिये..." (चर्चा अंक-2306) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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    1. बहुत बहुत शुक्रिया आपका शास्त्री सर जी मेरी रचना को चर्चा अंक में स्थान देने पर।

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  3. सुन्दर प्रस्तुति, मधुलिका जी।

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  4. सुन्दर प्रस्तुति, मधुलिका जी।

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  5. बहुत बहुत शुकृरिया आपका ज्योंति जी।

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  6. बहुत बहुत शुकृरिया आपका ज्योंति जी।

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  7. बहुत ही मार्मिक प्रस्तुति।

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    1. बहुत बहुत शुकृरिया आपका राजेश कुमार जी।

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