यह जीवन जब
भीड़ में गुम हो जाने के बाद
धीरे - धीरे तन्हा होता है
धीरे - धीरे पंखुड़ियों से
सूख कर बिखर जाते हैं यह रिश्ते
प्यार स्नेह और अपनेपन की
टूट जाती है माला
धीरे - धीरे हर मन का
गिरता जाता है
धीरे - धीरे कम हो जाता है
अपनों की आवाज़ों का कोलाहल
अल्फ़ाज़ बहुत हैं दिल में पर
धीरे - धीरे शब्दों का
अजनबी हो जाना
धीरे - धीरे ख़त्म होती
अहसासों की धड़कन
धीरे - धीरे कमज़ोर होते धागे
अपने से अपनों तक के
जिनमें पड़ जाती है
कई गाठें
पहले इंसान
अजनबी सी भीड़ में
शामिल होता है
भीड़ में खोकर अपना सब कुछ
वापस भीड़ से अलग
अजनबी बन जाता है
हर एक शख़्स एक दुसरे से है
अजनबी अजनबी . . .
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, गणतंत्र दिवस समारोह का समापन - 'बीटिंग द रिट्रीट'“ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteबहुत शुक्रिया इस कविता को पोस्ट में शामिल करने के लिए | आभार |
Deleteमधूलिका जी अपनी इस छोटी सी कविता में भीड़ वाले सन्नाटे की बात करती हैं. कवि नीरज भी फ़िल्म 'प्रेम पुजारी' वाले गीत -'बादल, बिजली, चन्दन, पानी जैसा अपना प्यार'में खुद को 'भीड़ के बीच अकेला' पाते हैं. कविता अच्छी है किन्तु इसमें जो विचार है, वह मौलिक नहीं है.
ReplyDeleteइस छोटी सी कविता को पढ़ने के लिए शुक्रिया | आश्चर्यजनक बात है की 'खुद को भीड़ में अकेला पाना' एक अमौलिक विचार है ? आज कल की तेज़ रफ़्तार ज़िन्दगी में हर दूसरा इंसान ज़िन्दगी के किसी न किसी मोड़ पर खुद को अकेला ही पाता है | उसी की चर्चा इन पंक्तियों में है |
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (31-01-2018) को "रचना ऐसा गीत" (चर्चा अंक-2865) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत शुक्रिया इस कविता को पोस्ट में शामिल करने के लिए | आभार |
Deleteआदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर 'सोमवार' ०५ फरवरी २०१८ को साप्ताहिक 'सोमवारीय' अंक में लिंक की गई है। आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/
ReplyDeleteटीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।
तहेदिल से शुकि्या सर मेरी रचना को स्थान देने पर।
Deleteबहुत खूब
ReplyDeleteउम्दा रचना
बहुत बहुत शुकि्या लोकेश जी ।
Deleteवाह
ReplyDeleteबहुत सुन्दर सृजन
सादर
तहेदिल से आभार आपका मेरी ब्लॉग पर आने का और मेरी रचना को सरहने का।
Delete
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना आज "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 7फरवरी 2018 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
बहुत बहुत आभार आपका पम्मी जी मेरी रचना को स्थान देने पर ।
Deleteवाह !!!बहुत खूब
ReplyDeleteबहुत बहुत शुकि्या नीतू जी
Deleteसत्य आज का मनुष्य भीड़ में भी अकेला है
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका ।
Deleteपहले इंसान
ReplyDeleteअजनबी सी भीड़ में
शामिल होता है
भीड़ में खोकर अपना सब कुछ
वापस भीड़ से अलग
अजनबी बन जाता है
हर एक शख़्स एक दुसरे से है
अजनबी अजनबी . . .
बहुत ही सुंदर प्रसूति, मधुलिका जी।
बहुत बहुत शुकि्या ज्योति जी
Deleteबहुत सुन्दर ,सार्थक रचना...
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका ।
Deleteवाह ! क्या बात है ! खूबसूरत प्रस्तुति ! बहुत खूब आदरणीय ।
ReplyDeleteतहेदिल से शुकि्या सर मेरी ब्लॉग पर आने का ।
Deleteबहुत बहुत शुकि्या ।
ReplyDeleteबहुत बहुत शुकि्या सर ।
ReplyDeleteमन की इस अवस्था से बाहर ख़ुद आता बाई इंसान ...
ReplyDeleteऐसे अवसाद के पल अनेकों पार जीवन में आते हैं ... कुछ ऐसे पलों की गहरी दास्ताँ है ये रचना ...
तहे दिल से शुकि्या नेस्वा जी ।
Deleteनिमंत्रण
ReplyDeleteविशेष : 'सोमवार' १९ मार्च २०१८ को 'लोकतंत्र' संवाद मंच अपने सोमवारीय साप्ताहिक अंक में आदरणीया 'पुष्पा' मेहरा और आदरणीया 'विभारानी' श्रीवास्तव जी से आपका परिचय करवाने जा रहा है।
अतः 'लोकतंत्र' संवाद मंच आप सभी का स्वागत करता है। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/
बहुत बहुत शुक्रिया ध्रुव सिंह जी
DeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteभीड़ में खोकर अपना सब कुछ
ReplyDeleteवापस भीड़ से अलग
अजनबी बन जाता है
हर एक शख़्स एक दुसरे से है
अजनबी अजनबी . . .
बहुत ही सुंदर प्रस्तुति मधुलिका जी।
बहुत बहुत शुक्रिया संजयजी
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