स्त्री और समेटना दोनों शब्द एक दूसरे के पूरक हैं
बचपन से ही माँ सिखाती है
अपना कमरा समेट कर रखो
कपड़े किताबें बिखरा हुआ सामान
हम माँ के रूप में इस शब्द को
समझते और अपने आप में
ढालते चले जाते हैं
माँ कितना कुछ समेटती है
अपनी ज़िंदगी को
कठिनाइयों के दर्द को बिखरे हुए रिश्तों को
अपने पल्लू को
जिसमें काम की यादों की गांठे लगी हुई हैं
अपने सुनहरे बालों को
जो उसके सुंदर से चेहरे पर
अटखेलियों करते हैं
हम स्त्रियाँ सारी ज़िंदगी
घर को समेट कर उसे
जीवन देते हैं
अपनी सांसो से सींचते है
हर समेटी हुई चीजों के बीच में
अपनी महत्वकांक्षाओं को भी
बड़ी उम्मीद से
समेट देते हैं
की पता है कभी पूरी नहीं होने वाली
जब अपनी इच्छाओं के पंखों को
समेट लेते हैं तो, सभी के उन्नति के
द्वार खुल जाते हैं
इक उम्र के बाद
उड़ान भरे हुए पंख
और थके हुए पंखों
के बीच की कहानी कोई समझ पाए
आराम की तलाश में
सुकून भरे घोंसले की आस में
स्त्री और पंख