Saturday, 18 August 2018

भागती ज़िन्दगी


चाँदनी रात के साये में 
जागते और भागते लोग 
आँखों में नींद कहाँ है 
सपने आँखों से भी बड़े हैं 
न नींद में समाते 
न आँखों को आराम पहुँचाते 
आज की रात खत्म होती नहीं 
उससे पहले कल का दामन 
थामने की जल्दी 
ज़िन्दगी ने तो जैसे
जद्दो - जहद की हद कर दी 
कासिब का हिसाब 
कदो हैसियत से छोटा होता जा रहा है
ये चाँद और सूरज
शहर को जगाते और
भगाते हैं 
उम्र से लम्बी सड़कों पर
भागने वाला मन 
आँखों के सपने 
एक दिन खुली हथेली से 
फिसल कर 
दूर कहीं टूट कर 
बिखर जाते हैं 
लम्हा लम्हा पकड़ने की चाह में 
ज़िन्दगी पता नहीं कब 
राख होकर उड़ जाती है 

19 comments:

  1. Replies
    1. बहुत बहुत शुक्रिया अनुराधा जी

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  2. आपको सूचित किया जा रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल सोमवार (20-08-2018) को "आपस में मतभेद" (चर्चा अंक-3069) पर भी होगी!
    --
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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    1. तहेदिल से शुक्रिया आप का मेरी पोस्ट को चर्चा मंच में स्थान देने के लिए।

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  3. जय मां हाटेशवरी...
    अनेक रचनाएं पढ़ी...
    पर आप की रचना पसंद आयी...
    हम चाहते हैं इसे अधिक से अधिक लोग पढ़ें...
    इस लिये आप की रचना...
    दिनांक 21/08/2018
    को
    पांच लिंकों का आनंद
    पर लिंक की गयी है...
    इस प्रस्तुति में आप भी सादर आमंत्रित है।

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    1. तहेदिल से शुक्रिया आप का मेरी पोस्ट को पांच लिंको का आनंद में स्थान देने के लिए।

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  4. सच भागती जिंदगी में कितना कुछ पीछे छूट जाता है, बहुत बाद में पता चलता है
    बहुत सुन्दर रचना

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    1. बहुत बहुत शुक्रिया कविता जी।

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  5. Replies
    1. बहुत बहुत शुक्रिया सुमन जी

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  6. ये ठीक कहा है आपने पर शायद जिंदगी भी तो यही है ...
    सभी यह कर रहे हैं ...
    मन के अवसाद भरे पल को बाखूबी लिखा है अपने ...

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    1. जी सर ठीक कहा आपने हम सब इसी भागदौड़ का हिस्सा है। तहेदिल से शुक्रिया आप का।

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  7. Replies
    1. बहुत बहुत शुक्रिया सर

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  8. तहेदिल से शुक्रिया आप का ।

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  9. सुन्दर प्रस्तुति

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  10. बहुत बहुत शुक्रिया सर

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  11. वर्त्तमान परिस्थिति को दर्शाती
    अति उत्तम रचना
    बहुत खूब...

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    1. बहुत बहुत शुक्रिया आपका

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