Wednesday, 13 December 2017

बेजान यादें


इस वर्ष श्राद्ध में
मैंने तुम्हारी यादों का 
तर्पण कर दिया 
जो वर्ष पहले
धीरे धीरे मर रही थी |
तुम्हारी याददाश्त में भी 
मैं ज़िंदा कहाँ थी ?

उन बेजान यादों को 
दिल की ज़मीं से 
खाली करना
मेरा मन बार बार
न चाह कर भी 
उस ज़मीन को 
टटोलता रहता की 
शायद कहीं कोई याद
खरपतबार बनके
दोबारा पनपी हो 
शायद जंगली हो गई हो
उन्हें तरतीब से सजा दूंगी 
पर नहीं वो बंजर हो चुकी थी 
अब भटकना नहीं था 
उनको आत्मा की तरह 

इसलिए इस बार मैंने 
उनका तर्पण कर दिया
तिल और कुशा के साथ 
वो पवित्र जल 
के साथ दूर कहीं बहती गई
मैं बंधन मुक्त हो गई 
तुम्हें आज़ादी दे कर 

कहते हैं
अंजुली के पानी में 
तिल और कुशा 
डाल कर तर्पण करने से 
कुछ भी वापिस नहीं आता 

20 comments:

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    1. तहेदिल से शुकि्या सुशील जी ।

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    1. बहुत बहुत आभार आपका रिंकी जी ।

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  3. बहुत ख़ूब ! शब्दों का अनोखा तालमेल भावनाओं के साथ ,सुन्दर ! आभार। "एकलव्य"

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    1. बहुत बहुत शुकि्या सर

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  4. बहुत सुंदर रचना

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  5. तमाम कोशिशों के बाद भी कडुवी-खट्टी-मीठी यादें कहाँ जा पाती हैं जेहन से...
    बहुत सुन्दर प्रस्तुति

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    1. बहुत बहुत आभार आपका कविता जी

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  6. भावपूर्ण अभिव्यक्ति

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    1. बहुत बहुत शुकि्या सदा जी

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  7. मनभावन सुंदर रचना।।

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    1. बहुत बहुत आभार आपका शुभम जी

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  8. बहुत बढ़िया

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    1. बहुत बहुत आभार आपका ओंकार जी

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  9. तहे दिल से शुकि्या आपका शास्त्री जी मेरी रचना को चर्चा अंक में स्थान देनेपर

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  10. धीरे धीरे जो बातें ख़त्म हो रही हों उनको जितना जल्दी हो ख़त्म कर देना चाहिए ... फिर वो चाहें यादें ही हों ... यादें काटना ही अच्छा ...
    लाजवाब रचना ...

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  11. मुझ जैसे नाचीज़ को जब आप की टिप्पणी मिलती है तब लगता है शायद मैंने कुछ अच्छा लिखा होगा। तहेदिल से शुकि्या आपका ।

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  12. कहते हैं
    अंजुली के पानी में
    तिल और कुशा
    डाल कर तर्पण करने से
    कुछ भी वापिस नहीं आता,....wah kya baat hai aapki,...bahut khub.

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    1. तहेदिल से शुकि्या सर जी ।

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