इस वर्ष श्राद्ध में
मैंने तुम्हारी यादों का
तर्पण कर दिया
जो वर्ष पहले
धीरे धीरे मर रही थी |
तुम्हारी याददाश्त में भी
मैं ज़िंदा कहाँ थी ?
उन बेजान यादों को
दिल की ज़मीं से
खाली करना
मेरा मन बार बार
न चाह कर भी
उस ज़मीन को
टटोलता रहता की
शायद कहीं कोई याद
खरपतबार बनके
दोबारा पनपी हो
शायद जंगली हो गई हो
उन्हें तरतीब से सजा दूंगी
पर नहीं वो बंजर हो चुकी थी
अब भटकना नहीं था
उनको आत्मा की तरह
इसलिए इस बार मैंने
उनका तर्पण कर दिया
तिल और कुशा के साथ
वो पवित्र जल
के साथ दूर कहीं बहती गई
मैं बंधन मुक्त हो गई
तुम्हें आज़ादी दे कर
कहते हैं
अंजुली के पानी में
तिल और कुशा
डाल कर तर्पण करने से
कुछ भी वापिस नहीं आता
वाह
ReplyDeleteतहेदिल से शुकि्या सुशील जी ।
DeleteBeautiful poem
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका रिंकी जी ।
Deleteबहुत ख़ूब ! शब्दों का अनोखा तालमेल भावनाओं के साथ ,सुन्दर ! आभार। "एकलव्य"
ReplyDeleteबहुत बहुत शुकि्या सर
Deleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteतमाम कोशिशों के बाद भी कडुवी-खट्टी-मीठी यादें कहाँ जा पाती हैं जेहन से...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति
बहुत बहुत आभार आपका कविता जी
Deleteभावपूर्ण अभिव्यक्ति
ReplyDeleteबहुत बहुत शुकि्या सदा जी
Deleteमनभावन सुंदर रचना।।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका शुभम जी
Deleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका ओंकार जी
Deleteतहे दिल से शुकि्या आपका शास्त्री जी मेरी रचना को चर्चा अंक में स्थान देनेपर
ReplyDeleteधीरे धीरे जो बातें ख़त्म हो रही हों उनको जितना जल्दी हो ख़त्म कर देना चाहिए ... फिर वो चाहें यादें ही हों ... यादें काटना ही अच्छा ...
ReplyDeleteलाजवाब रचना ...
मुझ जैसे नाचीज़ को जब आप की टिप्पणी मिलती है तब लगता है शायद मैंने कुछ अच्छा लिखा होगा। तहेदिल से शुकि्या आपका ।
ReplyDeleteकहते हैं
ReplyDeleteअंजुली के पानी में
तिल और कुशा
डाल कर तर्पण करने से
कुछ भी वापिस नहीं आता,....wah kya baat hai aapki,...bahut khub.
तहेदिल से शुकि्या सर जी ।
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