तुम भी वहाँ मौजूद नहीं थे
मेरा तो खैर सवाल ही नहीं उठता
पर हमारे ख्याल वहाँ मौजूद थे
पर हमने कभी ज़िरह की
ये सवाल ही नहीं उठता
हमारे मौन को शब्द मिले थे
पर शब्द तुम्हारी आवाज़ से गूंजे
सवाल ही नहीं उठता
मेरे तो मौन रहने के फैसले थे
हर एक ने नई कहानी बनाने के
जिम्मे बहुत लिए थे
हमें कहानी का किरदार
बनाने का सवाल ही नहीं उठता
मौन में उपजे लम्हे
बेड़ियों से आज़माइश में डालते थे
बहुत वक़्त था पर सब
उड़ता जा रहा था तूफ़ान सा
धीरे धीरे मौन भी खत्म हो गया
आँधियों को ज़िन्दगी के फैसले
उड़ा ले जाने की चाहत बहुत थी
उजड़ा उजड़ा सा सब बिखरा हुआ
मेरे चीखने से शब्द भी बने
आवाज़ भी हुई
दीवारों से टकराई फिर मुड़कर
मुझ तक वापस आई
नई नई दीवारें बनती थी हर लम्हा
मेरी नज़रों के सामने
सोने चाँदी हीरे मोती की
पर मजबूत पत्थर सी
शब्द भूल गई अर्थ भूल गई
बस धुंधला सा अक्स है
और दो आंसू हैं
जिस दिन आँखों को
दिखना बंद हो जाएगा
वो मोती गालों पर लुड़क कर
मौन को शब्द देंगे
और स्टेज से
ज़िन्दगी के नाटक का अंतिम दृश्य होगा
बहुत सुंदर
ReplyDeleteआदरणीय सर बहुत बहुत आभार आपका
Deleteबहुत खूब..👌
ReplyDeleteआदरणीया बहुत बहुत आभार आपका
Deleteबहुत बहुत सुन्दर रचना
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Deleteआदरणीय सर बहुत बहुत आभार आपका
Deleteबहुत सुंदर सृजन।
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ReplyDeleteआदरणीया बहुत बहुत आभार आपका
Deleteबहुत सुंदर सृजन
ReplyDeleteआदरणीया बहुत बहुत आभार आपका
Deleteमौन जब मुखरित होता है तो बड़ा कष्ट देता है। .
ReplyDeleteआदरणीया बहुत बहुत आभार आपका
Deleteदर्द को भीतर तक महसूस कर ही ऐसी रचना का जन्म होता है
ReplyDeleteआदरणीया बहुत बहुत आभार आपका
Deleteइस ख़ामोश दर्द की बात ने मेरे अल्फ़ाज़ को ज़ुबां पर आने से रोककर मुझे भी मौन कर दिया है। क्या कहना, क्या सुनना ? अहसास होना ही काफ़ी है।
ReplyDeleteआदरणीय सर बहुत बहुत आभार आपका
Deleteअनुपम
ReplyDeleteआदरणीय सर बहुत बहुत आभार आपका
Deleteबहुत अच्छी कविता. सादर अभिवादन. नमस्ते
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