Saturday 9 April 2016

मुसाफ़िर


तुम मेरी नज़मो के मुसाफ़िर बन गए हो
आते जाते चंद मुलाकात होती रहती है
पर अब धीरे-धीरे तुमने उस ज़मी को
हथिया लिया है
और इक खूबसूरत सा मकान
बना लिया है
नज़मों की गलियों में
जब तुम नहीं होते
बहुत ख़ामोशी सी छाई रहती है
लफ्जों के दरमियाँ
अब नज़्म चाहती है
तुम्हारी रौनके लगी रहे
ये मकान खाली ना रहे
तुम आओ
हकीकत बन के
तुम्हारी आने की आहट सी न लगे

Wednesday 6 April 2016

रोटी


ऊँचा पद बढ़ता रौब
कुर्सी का रुतबा
अधिनस्तोकी फ़ौज
जोड़ते हाथ विनती के
घुटता दम मरता स्वाभिमान
आस और उम्मीद
किस चीज की
पेट की आग बुझाने वाली
बरसात रोटी और पैसा
बहुत नीचे खड़ा है वो
पता नहीं दिखेगा भी की नहीं
उसकी विनती और लाचारी वाला कद
बहुत ही न्यून है
कुर्सी से उसे उम्मीद बहुत है
दोनों हाथो को जोड़ते वक्त
अपने स्वाभिमान को
पैरो तले रौंदता हुआ पाता है
सब कुछ समेट लेता है
गाँव परिवार झोपड़ी
जिम्मेदारी बीमारी
उन्हीं दो हाथों में उसकी विनती के अंदर
चार पैसों की आस वाली नौकरी
कुर्सी की आँखें बहुत घाघ हैं
वो देखना चाहती हैं की कितना कुछ खून
निचोड़ा जा सकता है
चंद पैसों के बदले